ग्राम-स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा; और फिर भी बहुतेरी जरूरतों के लिए-जिसमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा-वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर एक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत को तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिए, जिसमें ढोर चर सकें और गाँव के बड़ों व बच्चों के लिए मन बहलाव के साधन और खेल-कूद के मैदान वगैरा का बंदोबस्त हो सके। इसके बाद भी जमीन बची तो उसमें वह ऐसी उपयोगी फसलें बोएगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके; यों वह गांजा, तंबाकू, अफीम वगैरा की खेती से बचेगा।
हर एक गाँव में गाँव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभा-भवन रहेगा। पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा-वाटर वर्क्स होंगे-जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता हैं। बुनियादी तालीम के आखिर दरजे तक शिक्षा सब के लिए लाजिमी होगी। जहाँ तक हो सकेगा, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएँगे। जात-पात और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में जाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिल्कुल नहीं रहेंगे।
सत्याग्रह और असयोग के शस्त्र के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन-बल होगी। गाँव की रक्षा के लिए ग्राम-सैनिकों का एक ऐसा दल रहेगा, जिसे लाजिमी तौर पर बारी-बारी से गाँव के चौकी-पहरे का काम करना होगा। इसके लिए गाँव में ऐसे लोगों का रजिस्टर रखा जाएगा। गाँव का शासन चलाने के लिए हर साल गाँव के पाँच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इसके लिए नियमानुसार एक खास व निर्धारित योग्यता वाले गाँव के बालिग स्त्री-पुरुषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन लें। इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यकता सत्ता और अधिकार रहेंगे। चूँकि इस ग्राम-स्वराज्य में आज के प्रचलित अर्थों सजा या दंड का कोई रिवाज नहीं रहेगा, इसलिए यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारा सभा, न्याय सभा और कार्यकारिणी सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेगी।
आज भी अगर कोई गाँव चाहें तो अपने यहाँ इस तरह का प्रजातंत्र कायम कर सकता है। उसके इस काम में मौजूदा सरकार भी ज्यादा दस्तदाजी नहीं करेगी। क्योंकि उसका गाँव से जो भी कारगर संबंध है, वह सिर्फ मालगुजारी वसूल करने तक ही सीमित है। यहाँ मैंने इस बात का विचार नहीं किया है कि इस तरह के गाँव का अपने पास-पड़ोस के गाँवों के साथ या केंद्रीय सरकार के साथ, अगर वैसी कोई सरकार हुई, क्या संबंध रहेगा। मेरा हेतु तो ग्राम-शासन की एक रूपरेखा पेश करने का ही है। इस ग्राम-शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखने वाला संपूर्ण प्रजातंत्र काम करेग। व्यक्ति ही अपनी इस सरकार का निर्माता भी होगा। उसकी सरकार और वह दोनों अहिंसा के नियम के वश होकर चलेंगे। अपने गाँव के साथ वह सारी दुनिया की शक्ति का मुकाबला कर सकेगा। क्योंकि हर एक देहाती के जीवन का सबसे बड़ा नियम यह होगा कि वह अपनी और गाँव की इज्जत की रखा के लिए मर मिटे।
संभव है ऐसे गाँव को तैयार करने में एक आदमी की पूरी जिंदगी खतम हो जाए। सच्चे प्रजातंत्र का और ग्राम-जीवन का कोई भी प्रेमी एक गाँव को लेकर बैठ सकता है और उसी को अपनी सारी दुनिया मानकर उसके काम में मशगूल रह सकता है। निश्चय ही उसे इसका अच्छा फल मिलेगा। वह गाँव में बैठते ही एक साथ गाँव के भंगी, कतवैये, चौकीदार, वैद्य और शिक्षक का काम शुरू कर देगा। अगर गाँव का कोई आदमी उसके पास न फटके, तो भी वह संतोष के साथ अपने सफाई और कताई के काम में जुटा रहेगा।
देहातवालों में ऐसी कला और कारीगरी का विकास होना चाहिए, जिससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत की जा सके। जब गाँव का पूरा-पूरा विकास हो जाएगा, तो देहातियों की बुद्धि और आत्मा को संतुष्ट करने वाली कला-कारीगरों के धनी स्त्री-पुरुषों की गाँवों में कमी नहीं रहेगी। गाँव में कवि होंगे, चित्रकार होंगे, शिल्पी होंगे, भाषा के पंडित और शोध करने वाले लोग भी होंगे। थोड़े में, जिंदगी की ऐसी कोई चीज न होगी जो गाँव में न मिले। आज हमारे देहात उजड़े हुए और कूड़े-कचरे के ढेर बने हुए हैं। कल वहीं सुंदर बगीचे होंगे और ग्रामवासियों को ठगना या शोषण करना असंभव हो जाएगा।
इस तरह के गाँवों की पुनर्रचना का काम आज से ही शुरू हो जाना चाहिए। गाँवों की पुनर्रचना का काम काम चलाऊ नहीं, बल्कि स्थायी होना चाहिए।
उद्योग, हुनर, तंदुरुस्ती और शिक्षा, तंदुरुस्ती और हुनर का सुंदर समन्वय करना चाहिए। नई तालिम में उद्योग और शिक्षा, तंदुरुस्ती और हुनर का सुंदर समन्वय है। इन सबके मेल से माँ के पेट में आने के सयम से लेकर बुढ़ापे तक का एक खूबसूरत फूल तैयार होता है। यही नई तालीम है। इसलिए मैं शुरू में ग्राम-रचना के टुकड़े नहीं करूँगा, बल्कि यह कोशिश करूँगा कि इन चारों का आपस में मेल बैठे। इसलिए मैं किसी उद्योग और शिक्षा को अलग नहीं मानूँगा, बल्कि उद्योग को शिक्षा का जरिया मानूँगा, और इसलिए ऐसी योजना में नई तालीम को शामिल करूँगा।
मेरी कल्पना की ग्राम-इकाई मजबूत-से-मजबूत होगी। मेरी कल्पना के गाँव में 1000 आदमी रहेंगे। ऐसे गाँव को अगर स्वावलंबन के आधार पर अच्छी तरह संगठित किया जाए, तो वह बहुत कुछ कर सकता है।
आदर्श भारतीय ग्राम इस तरह बनाया जाएगा कि उसमें आसानी से स्वच्छता की पूरी-पूरी व्यवस्था रहे। उसकी झोपड़ियों में पर्याप्त प्रकाश और हवा का प्रबंध होगा, और उसके निर्माण में जिस सामान का उपयोग होगा वह ऐसा होगा, जो गाँव के आस-पास पाँच मील की त्रिज्या के अंदर आने वाले प्रदेश में मिल सके। इस झोपड़ियों में आँगन या खुली जगह होगी, जहाँ उस घर के लोग अपने उपयोग के लिए साग-भाजियाँ उगा सकें और अपने मवेशियों को रख सकें। गाँव की गलियों और सड़के जिस धूल को हटाया जा सकता है। उससे मुक्त होंगी। उस गाँव में उसकी आवश्यकता के अनुसार कुएँ होंगे और वे सबके लिए खुले होंगे। उसमें सब लोगों के लिए पूजा के स्थान होंगे, सबके लिए एक सभा-भवन होगा, मवेशियों के चरने के लिए गाँव का चरागाह होगा, सहकारी डेरी होगी, प्राथमिक और माध्यमिक शालाएँ होंगी जिनमें मुख्यत: औद्योगक शिक्षा दी जाएगी, और झगड़ों के निपटारे के लिए ग्राम-पंचायत होगी। वह अपना अनाज, साग-भाजियाँ और फल तथा खादी खुद पैदा कर लेगा।
हर एक गाँव में गाँव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभा-भवन रहेगा। पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा-वाटर वर्क्स होंगे-जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता हैं। बुनियादी तालीम के आखिर दरजे तक शिक्षा सब के लिए लाजिमी होगी। जहाँ तक हो सकेगा, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएँगे। जात-पात और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में जाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिल्कुल नहीं रहेंगे।
सत्याग्रह और असयोग के शस्त्र के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन-बल होगी। गाँव की रक्षा के लिए ग्राम-सैनिकों का एक ऐसा दल रहेगा, जिसे लाजिमी तौर पर बारी-बारी से गाँव के चौकी-पहरे का काम करना होगा। इसके लिए गाँव में ऐसे लोगों का रजिस्टर रखा जाएगा। गाँव का शासन चलाने के लिए हर साल गाँव के पाँच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इसके लिए नियमानुसार एक खास व निर्धारित योग्यता वाले गाँव के बालिग स्त्री-पुरुषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन लें। इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यकता सत्ता और अधिकार रहेंगे। चूँकि इस ग्राम-स्वराज्य में आज के प्रचलित अर्थों सजा या दंड का कोई रिवाज नहीं रहेगा, इसलिए यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारा सभा, न्याय सभा और कार्यकारिणी सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेगी।
आज भी अगर कोई गाँव चाहें तो अपने यहाँ इस तरह का प्रजातंत्र कायम कर सकता है। उसके इस काम में मौजूदा सरकार भी ज्यादा दस्तदाजी नहीं करेगी। क्योंकि उसका गाँव से जो भी कारगर संबंध है, वह सिर्फ मालगुजारी वसूल करने तक ही सीमित है। यहाँ मैंने इस बात का विचार नहीं किया है कि इस तरह के गाँव का अपने पास-पड़ोस के गाँवों के साथ या केंद्रीय सरकार के साथ, अगर वैसी कोई सरकार हुई, क्या संबंध रहेगा। मेरा हेतु तो ग्राम-शासन की एक रूपरेखा पेश करने का ही है। इस ग्राम-शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखने वाला संपूर्ण प्रजातंत्र काम करेग। व्यक्ति ही अपनी इस सरकार का निर्माता भी होगा। उसकी सरकार और वह दोनों अहिंसा के नियम के वश होकर चलेंगे। अपने गाँव के साथ वह सारी दुनिया की शक्ति का मुकाबला कर सकेगा। क्योंकि हर एक देहाती के जीवन का सबसे बड़ा नियम यह होगा कि वह अपनी और गाँव की इज्जत की रखा के लिए मर मिटे।
संभव है ऐसे गाँव को तैयार करने में एक आदमी की पूरी जिंदगी खतम हो जाए। सच्चे प्रजातंत्र का और ग्राम-जीवन का कोई भी प्रेमी एक गाँव को लेकर बैठ सकता है और उसी को अपनी सारी दुनिया मानकर उसके काम में मशगूल रह सकता है। निश्चय ही उसे इसका अच्छा फल मिलेगा। वह गाँव में बैठते ही एक साथ गाँव के भंगी, कतवैये, चौकीदार, वैद्य और शिक्षक का काम शुरू कर देगा। अगर गाँव का कोई आदमी उसके पास न फटके, तो भी वह संतोष के साथ अपने सफाई और कताई के काम में जुटा रहेगा।
देहातवालों में ऐसी कला और कारीगरी का विकास होना चाहिए, जिससे बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की कीमत की जा सके। जब गाँव का पूरा-पूरा विकास हो जाएगा, तो देहातियों की बुद्धि और आत्मा को संतुष्ट करने वाली कला-कारीगरों के धनी स्त्री-पुरुषों की गाँवों में कमी नहीं रहेगी। गाँव में कवि होंगे, चित्रकार होंगे, शिल्पी होंगे, भाषा के पंडित और शोध करने वाले लोग भी होंगे। थोड़े में, जिंदगी की ऐसी कोई चीज न होगी जो गाँव में न मिले। आज हमारे देहात उजड़े हुए और कूड़े-कचरे के ढेर बने हुए हैं। कल वहीं सुंदर बगीचे होंगे और ग्रामवासियों को ठगना या शोषण करना असंभव हो जाएगा।
इस तरह के गाँवों की पुनर्रचना का काम आज से ही शुरू हो जाना चाहिए। गाँवों की पुनर्रचना का काम काम चलाऊ नहीं, बल्कि स्थायी होना चाहिए।
उद्योग, हुनर, तंदुरुस्ती और शिक्षा, तंदुरुस्ती और हुनर का सुंदर समन्वय करना चाहिए। नई तालिम में उद्योग और शिक्षा, तंदुरुस्ती और हुनर का सुंदर समन्वय है। इन सबके मेल से माँ के पेट में आने के सयम से लेकर बुढ़ापे तक का एक खूबसूरत फूल तैयार होता है। यही नई तालीम है। इसलिए मैं शुरू में ग्राम-रचना के टुकड़े नहीं करूँगा, बल्कि यह कोशिश करूँगा कि इन चारों का आपस में मेल बैठे। इसलिए मैं किसी उद्योग और शिक्षा को अलग नहीं मानूँगा, बल्कि उद्योग को शिक्षा का जरिया मानूँगा, और इसलिए ऐसी योजना में नई तालीम को शामिल करूँगा।
मेरी कल्पना की ग्राम-इकाई मजबूत-से-मजबूत होगी। मेरी कल्पना के गाँव में 1000 आदमी रहेंगे। ऐसे गाँव को अगर स्वावलंबन के आधार पर अच्छी तरह संगठित किया जाए, तो वह बहुत कुछ कर सकता है।
आदर्श भारतीय ग्राम इस तरह बनाया जाएगा कि उसमें आसानी से स्वच्छता की पूरी-पूरी व्यवस्था रहे। उसकी झोपड़ियों में पर्याप्त प्रकाश और हवा का प्रबंध होगा, और उसके निर्माण में जिस सामान का उपयोग होगा वह ऐसा होगा, जो गाँव के आस-पास पाँच मील की त्रिज्या के अंदर आने वाले प्रदेश में मिल सके। इस झोपड़ियों में आँगन या खुली जगह होगी, जहाँ उस घर के लोग अपने उपयोग के लिए साग-भाजियाँ उगा सकें और अपने मवेशियों को रख सकें। गाँव की गलियों और सड़के जिस धूल को हटाया जा सकता है। उससे मुक्त होंगी। उस गाँव में उसकी आवश्यकता के अनुसार कुएँ होंगे और वे सबके लिए खुले होंगे। उसमें सब लोगों के लिए पूजा के स्थान होंगे, सबके लिए एक सभा-भवन होगा, मवेशियों के चरने के लिए गाँव का चरागाह होगा, सहकारी डेरी होगी, प्राथमिक और माध्यमिक शालाएँ होंगी जिनमें मुख्यत: औद्योगक शिक्षा दी जाएगी, और झगड़ों के निपटारे के लिए ग्राम-पंचायत होगी। वह अपना अनाज, साग-भाजियाँ और फल तथा खादी खुद पैदा कर लेगा।
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