महान प्रकृति की इच्छा तो यही है कि हम अपनी रोटी पसीना बहाकर कमाएँ। इसलिए जो आदमी अपना एक मिनट भी बेकारी में बिताता है, वह उस हद तक अपने पड़ोसियों पर बोझ बनता है। और ऐसा करना अहिंसा के बिलकुल पहले ही नियम का उल्लंघन करना है। ...अहिंसा यदि अपने पड़ोसी के हित का खयाल रखना न हो तब तो उसका कोई अर्थ ही न रहे। आलसी आदमी अहिंसा की इस प्रारंभिक कसौटी में ही खोटा सिद्ध होता है।
रोटी के लिए हर एक मनुष्य को मजदूरी करना चाहिए, शरीर को (कमर को) झुकाना चाहिए, यह ईश्वर का कानून है। मूल खोज टॉल्स्टॉय की नहीं है, लेकिन उससे बहुत कम मशहूर रशियन लेखक टी.एम. बोन्दरेव्ह की है। टॉल्स्टॉय ने उसे रोशन किया और अपनाया। इसकी झाँकी मेरी आँखे भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में करती हैं। यज्ञ किए बिना जो खाता है वह चोरी का अन्न खाता है, ऐसा कठिन शाप यज्ञ नहीं करने वाले को दिया गया है। यहाँ यज्ञ का अर्थ जात-मेहनत या रोटी-मजदूरी ही शोभता है और मेरी राय में यही मुमकिन है।
जो भी हो, हमारे इस व्रत का जन्म इस तरह हुआ है। बुद्धि भी उस चीज की ओर हमें ले जाती है। जो मजदूरी नहीं करता उसे खाने का क्या हक है? बाइबल कहती है: 'अपनी रोटी तू अपना पसीना बहाकर कमा और खा।' करोड़पति भी अगर अपने पलंग पर लोटता रहे और उसके मुँह में कोई खाना डाले तब खाए, तो वह ज्यादा देर तक खा नहीं सकेगा, उसमें उसको मजा भी नहीं आएगा। इसलिए वह कसरत वगैरा करके भूख पैदा करता है और खाता तो है अपने ही हाथ-मुँह हिलाकर। अगर यों किसी-न-किसी रूप में अंगों की कसरत राजा-रंक सबकों करनी ही पड़ती है, तो रोटी पैदा करने की कसरत ही सब क्यों न करेंᣛ? यह सवाल कुदरती तौर पर उठता है। किसान को हवाखोरी या कसरत करने के लिए कोई कहता नहीं है और दुनिया के 90 फीसदी से भी ज्यादा लोगों का निर्वाह खेती पर होता है। बाकी के दस फीसदी लोग अगर इनकी लकल करें, तो जगत में कितना सुख, कितनी शांति और कितनी तंदुरुस्ती फैल जाएँᣛ? और अगर खेती के साथ बुद्धि भी मिले, तो खेती से संबंध रखने वाली बहुत-सी मुसीबतें आसानी से दूर हो जाएँगी। फिर, अगर इस जात-मेहनत के निरपवाद कानून को सब मानें तो ऊँच-नीच का भेद मिट जाए।
आज तो जहाँ ऊँच-नीच गंध भी वहाँ यानी वर्ण-व्यवस्था में भी वह घुस गई है। मालिक-मजदूर का भेद आम और स्थायी हो गया है और गरीब धनवान से जलता है। अगर सब रोटी के लिए मजदूरी करें, तो ऊँच-नीच का भेद न रहे; और फिर भी धनिक वर्ग रहेगा तो वह खुद को मालिक नहीं बल्कि उसस धन का रखवाला या ट्रस्टी मानेगा और उसका ज्यादातर उपयोग सिर्फ लोगों की सेवा के लिए ही करेगा।
जिसे अहिंसा का पालन करना हैं, सत्य की भक्ति करनी है, ब्रम्हाचर्य को कुदरती बनाना है, उसके लिए तो जात-मेहनत रामबाण-सी हो जाती है। यह मेहनत सचमुच तो खेती में ही हैं। लेकिन सब खेती नहीं कर सकते, ऐसी आज तो हालत है ही। इसलिए खेती के आदर्श को खयाल में रखकर खेती के एवज में आदमी भले-दूसरी मजदूरी करे-जैसे कताई, बुनाई, बढ़ाईगिरी, बुहारी वगैरा-वगैरा। सबको खुद के भंगी तो बनना ही चाहिए। जो खाता है वह टट्टी तो फिरेगा ही। इसलिए जो टट्टी फिरता है वही अपनी टट्टी जमीन में गाड़ दे यह उत्तम रिवाज है। अगर यह नहीं ही हो सके तो प्रत्येक कुटुंब अपना यह फर्ज अदा करे।
जिस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है, उसमें कोई बड़ा दोष पैठ गया है, ऐसा मुझे तो बसरों से लगता रहा है। इस जरूरी और तंदुरुस्ती बढ़ाने वाले (आरोग्य-पोषक) काम को सबसे नीचा काम पहले-पहल किसने माना, इसका इतिहास हमारे पास नहीं है। जिसने माना उसने हम पर उपकार तो नहीं ही किया। हम सब भंगी है यह भावना हमारे मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए; और उसका सबसे आसान तरीका यह है कि जो समझ गए हैं वे जात-मेहनत का आरंभ पाखाना-सफाई से करें। जो समझ-बूझकर, ज्ञानपूर्वक यह करेगा, वह उसी क्षण से धर्म को निराले ढँग से और सही तरीके से समझने लगेगा।
अधिकारों की उत्पत्ति उत्पत्ति का सच्चा स्त्रोत कर्तव्यों का पालन है। यदि हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो अधिकारों को ज्यादा ढूँढने की जरूरत नहीं रहेगी। लेकिन यदि हम कर्तव्यों को पूरा किए बिना अधिकारों के पीछे दौड़ें, तो वह मृग-मरीचिका के पीछे पड़ने जैसा ही व्यर्थ सिद्ध होगा। जितने हम उनके पीछे जाएँगे उतने ही वे हमसे दूर हटते जाएँगे। यही शिक्षा श्रीकृष्ण ने इन अमर शब्दों में दी है : 'तुम्हारा अधिकार कर्म में ही है, फल में कदापि नहीं।' यहाँ कर्म कर्त्तव्य है और फल अधिकार।
जीवन की आवश्यकताओं को पाने का हर एक आदमी को समान अधिकार है। यह अधिकार तो पशुओं और पक्षियों को भी है। और चूँकि प्रत्येक अधिकार के साथ एक संबंधित कर्त्तव्य जुड़ा हुआ है और उस अधिकार पर कहीं से कोई आक्रमण हो तो उसका वैसा ही इलाज भी है, इसलिए हमारी समस्या का रूप यह है कि हम प्रारंभिक बुनियादी समानता को सिद्ध करने के लिए उस समानता के अधिकार से जुड़े हुए कर्त्तव्य और इलाज ढूँढ़ निकालें। वह कर्त्तव्य यह है कि हम अपने हाथ-पाँव से मेहनत करें और वह इलाज यह है कि जो हमें हमारी मेहनत के फल से वंचित करे उसके साथ हम असहयोग करें।
जीवन की आवश्यकताओं को पाने का हर एक आदमीको समान अधिकार है। यह अधिकार तो पशुओं और पक्षियों को भी है। और चूँकि प्रत्येक अधिकार के साथ एक संबंधित कर्त्तव्य जुड़ा हुआ है और उस अधिकार पर कहीं से कोई आक्रमण हो तो उसका वैसा ही इलाज भी है, इसलिए हमारी समस्या का रूप यह है कि हम उस प्रारंभिक बुनियादी समानता को सिद्ध करने के लिए उस समानता के अधिकार से जुड़े हुए कर्त्तव्य और इलाज ढूँढ़ निकालें। वह कर्त्तव्य यह है कि हम अपने हाथ-पाँव से मेहनत करें और वह इलाज यह है कि जो हमें हमारी मेहनत के फल से वंचित करे उसके साथ हम असहयोग करें।
यदि सब लोग अपने ही परिश्रम की कमाई खावें तो दुनिया अन्न की कमी न रहे, और सबको अवकाश का काफी समय भी मिले। न तब किसी को जनसंख्या की वृद्धि की शिकायत रहे, न कोई बीमारी आवे, और न मनुष्य को कोई कष्ट या क्लेश सतावे। वह श्रम उच्च-से-उच्च प्रकार का यज्ञ होगा। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य अपने शरीर या बुद्धि के द्वारा और भी अनेक काम करेंगे, पर उनका वह सब श्रम लोक-कल्याण के लिए प्रेम का रम होगा। उस अवस्था में न कोई राजा होगा, न कोई रंक; न कोई ऊँचा होगा, और न कोई नीच; न कोई स्पृश्य रहेगा, न कोई अस्पृश्य।
भले ही वह एक अलभ्य आदर्श हो, पर इस कारण हमें अपना प्रयत्न बंद कर देने की जरूरत नहीं। यज्ञ के संपूर्ण नियम को अर्थात् अपने 'जीवन के नियम' को पूरा किए बिना भी अगर हम अपने नित्य के निर्वाह के लिए पर्याप्त शारीरिक श्रम करेंगे, तो उस आदर्श के बहुत कुछ निकट तो हम पहुँच ही जाएँगे।
यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारी आवश्यकताएँ बहुत कम हो जाएँगी। और हमारा भोजन भी सादा बन जाएगा। तब हम जीने के लिए खाएँगे, न कि खाने के लिए जिएँगे। इस बात की यथार्थता में जिसे शंका हो वह अपने परिश्रम की कमाई खाने का प्रयत्न करे। अपने पसीने की कमाई खाने में उसे कुछ और ही स्वाद मिलेगा, उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा, और उसे यह मालूम हो जाएगा कि जो बहुत-सी विलास की चीजें उसने अपने ऊपर लाद रखी थी वे सब बिलकुल ही फिजूल थीं।
बुद्धिपूर्वक किया हुआ शरीर-श्रम समाज-सेवा का सर्वोत्कृष्ट रूप है।
यहाँ शरीर-श्रम शब्द के साथ 'बुद्धिपूर्वक किया हुआ' विशेषण यह दिखाने के लिए जोड़ा गया है कि किए हुए शरीर-श्रम के पीछे समाज-सेवा का निश्चित उद्देश्य हो, तभी उसे समाज-सेवा का दरजा मिल सकता है। ऐसा न हो तब तो कहा जाएगा कि हर एक मजदूर समाज-सेवा करता ही है। वैसे, एक अर्थ में यह कथन सही भी है, लेकिन यहाँ उससे कुछ ज्यादा अभीष्ट है। जो आदमी सब लोगों के सामान्य कल्याण के लिए परिश्रम करता है, वह जरूर समाज की ही सेवा करता है; और उसकी आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिए। इसलिए ऐसा शरीर-श्रम समाज-सेवा से भिन्न नहीं है।
क्या मनुष्य अपने बौद्धिक श्रम से अपनी आजीविका नहीं कमा सकतेᣛ? नहीं। शरीर की आवश्यकताएँ शरीर द्वारा ही पूरी होनी चाहिए। केवल मानसिक और बौद्धिक श्रम आत्मा के लिए और स्वयं अपने ही संतोष के लिए है। उसका पुरस्कार कभी नहीं माँगा जाना चाहिए। आदर्श राज्य में डॉक्टर, वकील और ऐसे ही दूसरे लोग केवल समाज के लाभ के लिए काम करेंगे; अपने लिए नहीं। शरीरिक श्रम के धर्म का पालन करने से समाज की रचना में एक शांत क्रांति हो जाएगी। मनुष्य की विजय इसमें होगी कि उसने जीवन-संग्राम के बजाय परस्पर सेवा के संग्राम की स्थापना कर दी। पशु-धर्म के स्थान पर मानव-धर्म कायम हो जाएगा।
देहात में लौट जाने का अर्थ यह है कि शरीर-श्रम के धर्म को उसके तमाम अंगों के साथ हम निश्चित रूप में स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करते हैं। परंतु आलोचक कहते हैं, 'भारत की करोड़ों संतानें आज भी देहात में रहती हैं, फिर भी उन्हें पेट भर भोजन नसीब नहीं होता।' अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि यह बिलकुल सच बात है। सौभाग्य से हम जानते हैं कि उनका शरीर-श्रम के धर्म का पालन स्वेच्छापूर्ण नहीं है। उनका सब चले तो वे शरीर-श्रम कभी न करें और नजदीक के शहर में कोई व्यवस्था हो जाए तो वहाँ दौड़कर चले जाएँ। मजबूर होकर किसी मालिक की आज्ञा पालना गुलामी की स्थिति है, स्वेच्छा से अपने पिता की आज्ञा मानना पुत्रत्व का गौरव है। इसी प्रकार शरीर-श्रम के नियम का विवश होकर पालन करने से दरिद्रता, रोग और असंतोष उत्पन्न होते हैं। यह दासत्व की दशा है। शरीर-श्रम के नियम का स्वेच्छापूर्वक पालन करने से संतोष और स्वास्थ्य मिलता है। और तंदुरुस्ती ही असली दौलत है, न कि सोने-चाँदी के टुकड़े। ग्रामोद्योग-संघ स्वेच्छापूर्ण शरीर-श्रम का ही एक प्रयोग है।
भिखारियों की समस्या
मेरी अहिंसा किसी ऐसे तंदुरुस्त आदमी को मुफ्त खाना देने का विचार बरदाश्त नहीं करेगी, जिसने उसके लिए ईमानदारी से कुछ-न-कुछ काम न किया हो; और मेरा वश चले तो जहाँ मुफ्त भोजन मिलता है, वे सब सदाव्रत मैं बंद कर दूँ। इससे राष्ट्र का पतन हुआ है और सुस्ती, बेकारी, दंभ और अपराधों को भी प्रोत्साहन मिला है। इस प्रकार का अनुचित दान देश के भौतिक या आध्यात्मिक धन की कुछ भी वृद्धि नहीं करता और दाता के मन में पुण्यात्मा होने का झूठा भाव पैदा करता है। क्या ही अच्छी और बुद्धिमानी की बात हो, यदि दानी लोग ऐसी संस्थाएँ खोलें जहाँ उनके लिए काम करने वाले स्त्री-पुरुषों को स्वास्थ्यप्रद और स्वच्छा हालत में भोजन दिया जाए। मेरा खुद का तो यह विचार है कि चरचा या उससे संबंधित क्रियाओं में से कोई भी कार्य आदर्श होगा। परंतु उन्हें यह स्वीकार न हो तो वे कोई भी दूसरा काम चुन सकते हैं। जो भी हो नियम यह होना चाहिए कि 'मेहनत नहीं तो खाना भी नहीं।' प्रत्येक शहर के लिए भिखमंगों की अपनी-अपनी अलग कठिन समस्या है, जिसके लिए धनवान जिम्मेदार हैं। मैं जानता हूँ कि आलसियों को मुफ्त भोजन करा देना बहुत आसान है, परंतु ऐसी कोई संस्था संगठित करना बहुत कठिन है जहाँ किसी को खाना देने से पहले उससे ईमानदारी से काम कराना जरूरी हो। आर्थिक दृष्टि से, कम-से-कम शुरू में, लोगों से काम लेने के बाद उन्हें खाना खिलाने का खर्च मौजूदा मुफ्त के भोजनालयों के खर्च से ज्यादा होगा। लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि यदि हम भूमिति की गति से देश में बढ़ने वाले आवारागर्द लोगों की संख्या नहीं बढ़ना चाहते, तो अंत में यह व्यवस्था अधिक सस्ती पड़ेगी।
भीख माँगने को प्रोत्साहन देना बेशक बुरा है, लेकिन मैं किसी भिखारी की काम और भोजन दिए बिना नहीं लौटाऊँगा। हाँ, वह काम करना मंजूर न करे तो मैं उसे भोजन के बिना ही चला जाने दूँगा। जो लोग शरीर से लाचार हैं, जैसे लंगड़े या विकलांग, उनका पोषणराज्य को करना चाहिए। लेकिन बनावटी या सच्ची अंधता की आड़ में भी काफी धोखा-धड़ी चल रही है। कितने ही ऐसे अंधे है जिन्होंने अपनी अंधता का लाभ उठाकर काफी पैसा जमा कर लिया है। वे इस तरह अपनी अंधता का एक अनुचित लाभ उठाएँ, इसके बजाय यह ज्यादा अच्छा होगा कि उन्हें अपाहिजों की देखभाल करने वाली किसी संस्था में रख दिया जाए।
रोटी के लिए हर एक मनुष्य को मजदूरी करना चाहिए, शरीर को (कमर को) झुकाना चाहिए, यह ईश्वर का कानून है। मूल खोज टॉल्स्टॉय की नहीं है, लेकिन उससे बहुत कम मशहूर रशियन लेखक टी.एम. बोन्दरेव्ह की है। टॉल्स्टॉय ने उसे रोशन किया और अपनाया। इसकी झाँकी मेरी आँखे भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में करती हैं। यज्ञ किए बिना जो खाता है वह चोरी का अन्न खाता है, ऐसा कठिन शाप यज्ञ नहीं करने वाले को दिया गया है। यहाँ यज्ञ का अर्थ जात-मेहनत या रोटी-मजदूरी ही शोभता है और मेरी राय में यही मुमकिन है।
जो भी हो, हमारे इस व्रत का जन्म इस तरह हुआ है। बुद्धि भी उस चीज की ओर हमें ले जाती है। जो मजदूरी नहीं करता उसे खाने का क्या हक है? बाइबल कहती है: 'अपनी रोटी तू अपना पसीना बहाकर कमा और खा।' करोड़पति भी अगर अपने पलंग पर लोटता रहे और उसके मुँह में कोई खाना डाले तब खाए, तो वह ज्यादा देर तक खा नहीं सकेगा, उसमें उसको मजा भी नहीं आएगा। इसलिए वह कसरत वगैरा करके भूख पैदा करता है और खाता तो है अपने ही हाथ-मुँह हिलाकर। अगर यों किसी-न-किसी रूप में अंगों की कसरत राजा-रंक सबकों करनी ही पड़ती है, तो रोटी पैदा करने की कसरत ही सब क्यों न करेंᣛ? यह सवाल कुदरती तौर पर उठता है। किसान को हवाखोरी या कसरत करने के लिए कोई कहता नहीं है और दुनिया के 90 फीसदी से भी ज्यादा लोगों का निर्वाह खेती पर होता है। बाकी के दस फीसदी लोग अगर इनकी लकल करें, तो जगत में कितना सुख, कितनी शांति और कितनी तंदुरुस्ती फैल जाएँᣛ? और अगर खेती के साथ बुद्धि भी मिले, तो खेती से संबंध रखने वाली बहुत-सी मुसीबतें आसानी से दूर हो जाएँगी। फिर, अगर इस जात-मेहनत के निरपवाद कानून को सब मानें तो ऊँच-नीच का भेद मिट जाए।
आज तो जहाँ ऊँच-नीच गंध भी वहाँ यानी वर्ण-व्यवस्था में भी वह घुस गई है। मालिक-मजदूर का भेद आम और स्थायी हो गया है और गरीब धनवान से जलता है। अगर सब रोटी के लिए मजदूरी करें, तो ऊँच-नीच का भेद न रहे; और फिर भी धनिक वर्ग रहेगा तो वह खुद को मालिक नहीं बल्कि उसस धन का रखवाला या ट्रस्टी मानेगा और उसका ज्यादातर उपयोग सिर्फ लोगों की सेवा के लिए ही करेगा।
जिसे अहिंसा का पालन करना हैं, सत्य की भक्ति करनी है, ब्रम्हाचर्य को कुदरती बनाना है, उसके लिए तो जात-मेहनत रामबाण-सी हो जाती है। यह मेहनत सचमुच तो खेती में ही हैं। लेकिन सब खेती नहीं कर सकते, ऐसी आज तो हालत है ही। इसलिए खेती के आदर्श को खयाल में रखकर खेती के एवज में आदमी भले-दूसरी मजदूरी करे-जैसे कताई, बुनाई, बढ़ाईगिरी, बुहारी वगैरा-वगैरा। सबको खुद के भंगी तो बनना ही चाहिए। जो खाता है वह टट्टी तो फिरेगा ही। इसलिए जो टट्टी फिरता है वही अपनी टट्टी जमीन में गाड़ दे यह उत्तम रिवाज है। अगर यह नहीं ही हो सके तो प्रत्येक कुटुंब अपना यह फर्ज अदा करे।
जिस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है, उसमें कोई बड़ा दोष पैठ गया है, ऐसा मुझे तो बसरों से लगता रहा है। इस जरूरी और तंदुरुस्ती बढ़ाने वाले (आरोग्य-पोषक) काम को सबसे नीचा काम पहले-पहल किसने माना, इसका इतिहास हमारे पास नहीं है। जिसने माना उसने हम पर उपकार तो नहीं ही किया। हम सब भंगी है यह भावना हमारे मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए; और उसका सबसे आसान तरीका यह है कि जो समझ गए हैं वे जात-मेहनत का आरंभ पाखाना-सफाई से करें। जो समझ-बूझकर, ज्ञानपूर्वक यह करेगा, वह उसी क्षण से धर्म को निराले ढँग से और सही तरीके से समझने लगेगा।
अधिकारों की उत्पत्ति उत्पत्ति का सच्चा स्त्रोत कर्तव्यों का पालन है। यदि हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो अधिकारों को ज्यादा ढूँढने की जरूरत नहीं रहेगी। लेकिन यदि हम कर्तव्यों को पूरा किए बिना अधिकारों के पीछे दौड़ें, तो वह मृग-मरीचिका के पीछे पड़ने जैसा ही व्यर्थ सिद्ध होगा। जितने हम उनके पीछे जाएँगे उतने ही वे हमसे दूर हटते जाएँगे। यही शिक्षा श्रीकृष्ण ने इन अमर शब्दों में दी है : 'तुम्हारा अधिकार कर्म में ही है, फल में कदापि नहीं।' यहाँ कर्म कर्त्तव्य है और फल अधिकार।
जीवन की आवश्यकताओं को पाने का हर एक आदमी को समान अधिकार है। यह अधिकार तो पशुओं और पक्षियों को भी है। और चूँकि प्रत्येक अधिकार के साथ एक संबंधित कर्त्तव्य जुड़ा हुआ है और उस अधिकार पर कहीं से कोई आक्रमण हो तो उसका वैसा ही इलाज भी है, इसलिए हमारी समस्या का रूप यह है कि हम प्रारंभिक बुनियादी समानता को सिद्ध करने के लिए उस समानता के अधिकार से जुड़े हुए कर्त्तव्य और इलाज ढूँढ़ निकालें। वह कर्त्तव्य यह है कि हम अपने हाथ-पाँव से मेहनत करें और वह इलाज यह है कि जो हमें हमारी मेहनत के फल से वंचित करे उसके साथ हम असहयोग करें।
जीवन की आवश्यकताओं को पाने का हर एक आदमीको समान अधिकार है। यह अधिकार तो पशुओं और पक्षियों को भी है। और चूँकि प्रत्येक अधिकार के साथ एक संबंधित कर्त्तव्य जुड़ा हुआ है और उस अधिकार पर कहीं से कोई आक्रमण हो तो उसका वैसा ही इलाज भी है, इसलिए हमारी समस्या का रूप यह है कि हम उस प्रारंभिक बुनियादी समानता को सिद्ध करने के लिए उस समानता के अधिकार से जुड़े हुए कर्त्तव्य और इलाज ढूँढ़ निकालें। वह कर्त्तव्य यह है कि हम अपने हाथ-पाँव से मेहनत करें और वह इलाज यह है कि जो हमें हमारी मेहनत के फल से वंचित करे उसके साथ हम असहयोग करें।
यदि सब लोग अपने ही परिश्रम की कमाई खावें तो दुनिया अन्न की कमी न रहे, और सबको अवकाश का काफी समय भी मिले। न तब किसी को जनसंख्या की वृद्धि की शिकायत रहे, न कोई बीमारी आवे, और न मनुष्य को कोई कष्ट या क्लेश सतावे। वह श्रम उच्च-से-उच्च प्रकार का यज्ञ होगा। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य अपने शरीर या बुद्धि के द्वारा और भी अनेक काम करेंगे, पर उनका वह सब श्रम लोक-कल्याण के लिए प्रेम का रम होगा। उस अवस्था में न कोई राजा होगा, न कोई रंक; न कोई ऊँचा होगा, और न कोई नीच; न कोई स्पृश्य रहेगा, न कोई अस्पृश्य।
भले ही वह एक अलभ्य आदर्श हो, पर इस कारण हमें अपना प्रयत्न बंद कर देने की जरूरत नहीं। यज्ञ के संपूर्ण नियम को अर्थात् अपने 'जीवन के नियम' को पूरा किए बिना भी अगर हम अपने नित्य के निर्वाह के लिए पर्याप्त शारीरिक श्रम करेंगे, तो उस आदर्श के बहुत कुछ निकट तो हम पहुँच ही जाएँगे।
यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारी आवश्यकताएँ बहुत कम हो जाएँगी। और हमारा भोजन भी सादा बन जाएगा। तब हम जीने के लिए खाएँगे, न कि खाने के लिए जिएँगे। इस बात की यथार्थता में जिसे शंका हो वह अपने परिश्रम की कमाई खाने का प्रयत्न करे। अपने पसीने की कमाई खाने में उसे कुछ और ही स्वाद मिलेगा, उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा, और उसे यह मालूम हो जाएगा कि जो बहुत-सी विलास की चीजें उसने अपने ऊपर लाद रखी थी वे सब बिलकुल ही फिजूल थीं।
बुद्धिपूर्वक किया हुआ शरीर-श्रम समाज-सेवा का सर्वोत्कृष्ट रूप है।
यहाँ शरीर-श्रम शब्द के साथ 'बुद्धिपूर्वक किया हुआ' विशेषण यह दिखाने के लिए जोड़ा गया है कि किए हुए शरीर-श्रम के पीछे समाज-सेवा का निश्चित उद्देश्य हो, तभी उसे समाज-सेवा का दरजा मिल सकता है। ऐसा न हो तब तो कहा जाएगा कि हर एक मजदूर समाज-सेवा करता ही है। वैसे, एक अर्थ में यह कथन सही भी है, लेकिन यहाँ उससे कुछ ज्यादा अभीष्ट है। जो आदमी सब लोगों के सामान्य कल्याण के लिए परिश्रम करता है, वह जरूर समाज की ही सेवा करता है; और उसकी आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिए। इसलिए ऐसा शरीर-श्रम समाज-सेवा से भिन्न नहीं है।
क्या मनुष्य अपने बौद्धिक श्रम से अपनी आजीविका नहीं कमा सकतेᣛ? नहीं। शरीर की आवश्यकताएँ शरीर द्वारा ही पूरी होनी चाहिए। केवल मानसिक और बौद्धिक श्रम आत्मा के लिए और स्वयं अपने ही संतोष के लिए है। उसका पुरस्कार कभी नहीं माँगा जाना चाहिए। आदर्श राज्य में डॉक्टर, वकील और ऐसे ही दूसरे लोग केवल समाज के लाभ के लिए काम करेंगे; अपने लिए नहीं। शरीरिक श्रम के धर्म का पालन करने से समाज की रचना में एक शांत क्रांति हो जाएगी। मनुष्य की विजय इसमें होगी कि उसने जीवन-संग्राम के बजाय परस्पर सेवा के संग्राम की स्थापना कर दी। पशु-धर्म के स्थान पर मानव-धर्म कायम हो जाएगा।
देहात में लौट जाने का अर्थ यह है कि शरीर-श्रम के धर्म को उसके तमाम अंगों के साथ हम निश्चित रूप में स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करते हैं। परंतु आलोचक कहते हैं, 'भारत की करोड़ों संतानें आज भी देहात में रहती हैं, फिर भी उन्हें पेट भर भोजन नसीब नहीं होता।' अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि यह बिलकुल सच बात है। सौभाग्य से हम जानते हैं कि उनका शरीर-श्रम के धर्म का पालन स्वेच्छापूर्ण नहीं है। उनका सब चले तो वे शरीर-श्रम कभी न करें और नजदीक के शहर में कोई व्यवस्था हो जाए तो वहाँ दौड़कर चले जाएँ। मजबूर होकर किसी मालिक की आज्ञा पालना गुलामी की स्थिति है, स्वेच्छा से अपने पिता की आज्ञा मानना पुत्रत्व का गौरव है। इसी प्रकार शरीर-श्रम के नियम का विवश होकर पालन करने से दरिद्रता, रोग और असंतोष उत्पन्न होते हैं। यह दासत्व की दशा है। शरीर-श्रम के नियम का स्वेच्छापूर्वक पालन करने से संतोष और स्वास्थ्य मिलता है। और तंदुरुस्ती ही असली दौलत है, न कि सोने-चाँदी के टुकड़े। ग्रामोद्योग-संघ स्वेच्छापूर्ण शरीर-श्रम का ही एक प्रयोग है।
भिखारियों की समस्या
मेरी अहिंसा किसी ऐसे तंदुरुस्त आदमी को मुफ्त खाना देने का विचार बरदाश्त नहीं करेगी, जिसने उसके लिए ईमानदारी से कुछ-न-कुछ काम न किया हो; और मेरा वश चले तो जहाँ मुफ्त भोजन मिलता है, वे सब सदाव्रत मैं बंद कर दूँ। इससे राष्ट्र का पतन हुआ है और सुस्ती, बेकारी, दंभ और अपराधों को भी प्रोत्साहन मिला है। इस प्रकार का अनुचित दान देश के भौतिक या आध्यात्मिक धन की कुछ भी वृद्धि नहीं करता और दाता के मन में पुण्यात्मा होने का झूठा भाव पैदा करता है। क्या ही अच्छी और बुद्धिमानी की बात हो, यदि दानी लोग ऐसी संस्थाएँ खोलें जहाँ उनके लिए काम करने वाले स्त्री-पुरुषों को स्वास्थ्यप्रद और स्वच्छा हालत में भोजन दिया जाए। मेरा खुद का तो यह विचार है कि चरचा या उससे संबंधित क्रियाओं में से कोई भी कार्य आदर्श होगा। परंतु उन्हें यह स्वीकार न हो तो वे कोई भी दूसरा काम चुन सकते हैं। जो भी हो नियम यह होना चाहिए कि 'मेहनत नहीं तो खाना भी नहीं।' प्रत्येक शहर के लिए भिखमंगों की अपनी-अपनी अलग कठिन समस्या है, जिसके लिए धनवान जिम्मेदार हैं। मैं जानता हूँ कि आलसियों को मुफ्त भोजन करा देना बहुत आसान है, परंतु ऐसी कोई संस्था संगठित करना बहुत कठिन है जहाँ किसी को खाना देने से पहले उससे ईमानदारी से काम कराना जरूरी हो। आर्थिक दृष्टि से, कम-से-कम शुरू में, लोगों से काम लेने के बाद उन्हें खाना खिलाने का खर्च मौजूदा मुफ्त के भोजनालयों के खर्च से ज्यादा होगा। लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि यदि हम भूमिति की गति से देश में बढ़ने वाले आवारागर्द लोगों की संख्या नहीं बढ़ना चाहते, तो अंत में यह व्यवस्था अधिक सस्ती पड़ेगी।
भीख माँगने को प्रोत्साहन देना बेशक बुरा है, लेकिन मैं किसी भिखारी की काम और भोजन दिए बिना नहीं लौटाऊँगा। हाँ, वह काम करना मंजूर न करे तो मैं उसे भोजन के बिना ही चला जाने दूँगा। जो लोग शरीर से लाचार हैं, जैसे लंगड़े या विकलांग, उनका पोषणराज्य को करना चाहिए। लेकिन बनावटी या सच्ची अंधता की आड़ में भी काफी धोखा-धड़ी चल रही है। कितने ही ऐसे अंधे है जिन्होंने अपनी अंधता का लाभ उठाकर काफी पैसा जमा कर लिया है। वे इस तरह अपनी अंधता का एक अनुचित लाभ उठाएँ, इसके बजाय यह ज्यादा अच्छा होगा कि उन्हें अपाहिजों की देखभाल करने वाली किसी संस्था में रख दिया जाए।
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