हमने देखा कि मनुष्य की वृत्तियाँ चंचल हैं। उसका मन बेकार की दौड़-धूप किया करता है। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा देते जाएँ वैसे-वैसे ज्यादा माँगता जाता है। ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। भोग भोगने से भोग की इच्छा बढ़ती जाती इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बाँध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दु:ख तो मन के कारण है। अमीर अपनी अमीरी की वजह से सुखी नहीं है, गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है। अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सुखी देखने में आता है। करोड़ो लोग तो गरीब ही रहेंगे, ऐसा देखकर पूर्वजों ने भोग की वासना छुड़वाई। हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपड़े थे उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को जगह नहीं दी। सब अपना-अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिए। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरा की खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वहीं करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है।
उन्होंने सोचा कि बड़े शहर कायम करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों की टीलियाँ और वेश्याओं की गलियाँ पैदा होंगे; गरीब अमीरों से लूटे जाएँगे। इसलिए उन्होंने छोटे गाँवों से ही संतोष माना।
उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवार की बनिस्बत नीति का बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंने राजाओं को नीतिवान पुरुषों-ऋषियों और फकीरों-से कम दरजे का माना।
ऐसी जिस प्रजा की कठन है, वह प्रजा दूसरों को सिखाने लायक है; वह दूसरों से सीखने लायक नहीं है।
इस राष्ट्र में अदालतें थी, वकील थे, डॉक्टर-वैद्य थे। लेकिन वे सब ठीक ढँग से नियम के मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये धंधे बड़े धंधे नहीं है। और वकील, डॉक्टर वगैरा लोगों में लूट नहीं चलाते थे, वे तो लोग के आश्रित थे। वे लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इंसाफ काफी अच्छा होता था। अदालतों में न जाना लोगों का ध्येय था। उन्हें भरमाने वाले स्वार्थी लोग समाज में नहीं थे। इतनी सड़न भी सिर्फ राजा और राजधानी के आस-पास ही थी। यों आम प्रजा तो उनसे स्वतंत्र रहकर अपने खेंतो का मालिकी हक भोगती थी-खेती करके अपना निर्वाह करती थी। उसके पास सच्चा स्वराज्य था।
ऐसी नम्रता-शून्यता-आदत डालने से कैसे आ सकती है? लेकिन व्रतों को सही ढँग से समझने से नम्रता अपने-आप आने लगती है। सत्य का पालन करने की इच्छा रखने वाला अहंकारी कैसे हो सकता है? दूसरे के लिए प्राण न्यौछावर करने वाला अपनी जगह बनाने कहाँ जाएᣛ? उसने तो जब प्राण न्यौछावर करने का निश्चय किया तभी अपनी देह को फेंक दिया। ऐसी नम्रता का मतलब पुरुषार्थ का अभाव तो नहीं है? ऐसा अर्थ हिंदू धर्म में कर डाला गया है सही। और इसीलिए आलस्य को और पाखंड को बहुतेरे स्थानों पर जगह मिल गई है। सचमुच तो नम्रता के मानी हैं तीव्रतम पुरुषार्थ, सख्त-से-सख्त मेहनत। लेकिन वह सब परमार्थ के लिए होना चाहिए। ईश्वर खुद चौबीसों घंटे एक साँस से काम करता रहता है, अंगड़ाई लेने तक की फुरसत नहीं लेता। उसके हम हो जाएँ, उसमें हम मिल जाएँ, तो हमारा उद्यम उसके जैसा ही अतंद्रित हो जाएगा-होना चाहिए।
भगवान के नाम पर किया गया और उसे समर्पित किया गया कोई भी काम छोटा नहीं है। इस तरह किए गए हर एक छोटे या बड़े काम का समान मूल्य है। कोई भंगी यदि अपना काम भगवान की सेवा भावना से करता हो तो उसके और राजा के काम का, जो अपनी प्रतिभा का उपयोग भगवान के नाम पर और ट्रस्टी की तरह करता है, समान महत्त्व है।
अहिंसा का पुजारी उपयोगितावाद (बड़ी-से-बड़ी संख्या का ज्यादा-से-ज्यादा हित) का समर्थन नहीं कर सकता। वह तो 'सर्वभूत-हिताय' यानी सबके अधिकतम लाभ के लिए ही प्रयत्न करेगा और इस आदर्श की प्राप्ति में मर जाएगा। इस प्रकार वह इसलिए मरना चहेगा कि दूसरे जी सकें। दूसरों के साथ-साथ वह अपनी सेवा भी आप मरकर करेगा। सबके अधिकतम सुख के भीतर अधिकांश का अधिकतम सुख भी मिला हुआ है। और इसलिए अहिंसावादी और उपयोगवादी अपने रास्ते पर कई बार मिलेंगे। किंतु अंत में ऐसा भी अवसर आएगा, जब उन्हें अलग-अलग रास्ते पकड़ने होंगे और किसी-किसी दशा में एक-दूसरे का विरोध भी करना होगा। तर्कसंगत बने रहने के लिए उपयोगितावादी अपने को कभी बलि नहीं कर सकता। परंतु अहिंसावादी हमेशा मिट जाने को तैयार रहेगा।
जब तक सेवा की जड़ प्रेम या अहिंसा में न हो तब तक वह संभव ही नहीं है। सच्चा प्रेम समुद्र की तरह निस्सीम होता है और हृदय के भीतर ज्वार की तर उठकर बढ़ते हुए वह बाहर फैल जाता है तथा सीमाओं को पार करके दुनिया के छोरों तक जा पहुँचता है। सेवा के लिए आवश्यक दूसरी चीज है शरीर-श्रम, जिसे गीता में यज्ञ कहा गया है; शरीर-श्रम के बिना भी सेवा असंभव है। सेवा के लिए जब कोई पुरुष स्त्री शरीर-श्रम करती है, तभी उसे जीने का अधिकार प्राप्त होता है।
जब तक हम अपना अहंकार भूलकर शून्यता की स्थिति प्राप्त नहीं करते, तब तक हमारे लिए अपने दोषों को जीतना संभव नहीं है। ईश्वर पूर्ण आत्मा-समर्पण के बिना संतुष्ट नहीं होता। वास्तविक स्वतंत्रता का इतना मूल्य वह अवश्य चाहता है। और जब मनुष्य अपना ऐसा समर्पण कर चुकता है तब तुरंत ही वह अपने को प्राणिमात्र की सेवा में लीन पाता है। यह सेवा ही तब उसके आनंद और आमोद का विषय हो जाती है। तब वह एक बिलकुल नया ही आदमी बन जाता है और ईश्वर की इस सृष्टि की सेवा में अपने को खपाते हुए कभी नहीं थकता।
इस सत्य की भक्ति के कारण ही हमारी हस्ती हो। उसी के लिए हमारा हर एक काम, हर एक प्रवृत्ति हो। उसी के लिए हम हर साँस लें। ऐसा करना हम सीखें तो दूसरे सब नियमों के पास भी आसानी से पहुँच सकते हैं; और उनका पालन भी आसान हो जाएगा। सत्य के बगैर किसी भी नियम का शुद्ध पालन नामुमकिन है।
सत्य की खोज करने वाला, अहिंसा बरतने वाला परिग्रह नहीं कर सकता। परमात्मा परिग्रह नहीं करता। अपने लिए जरूरी चीज वह रोज पैदा करता है। इसलिए अगर हम उस पर पूरा भरोसा रखते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हमारी जरूरत की चीजें वह रोजाना देता है, और देगा।
साधन और साध्य
लोग कहते हैं, 'आखिर साधन तो साधन ही हैं।' मैं कहूँगा, 'आखिर तो साधन ही सब कुछ हैं।' जैसे साधन होंगे वैसा ही साध्य होगा। साधन और साध्य को अलग करने वाली कोई दीवार नहीं है। वास्तव में सृष्टिकर्ता ने हमें साधनों पर नियंत्रण (और वह भी बहुत सीमित नियंत्रण) दिया है; साध्य पर तो कुछ भी नहीं दिया। लक्ष्य की सिद्धि ठीक उतनी ही शुद्ध होती है, जितने हमारे साधन शुद्ध होते हैं। यह बात ऐसी है जिसमें किसी अपवाद की गुंजाइश नहीं है।
हिंसा पूर्ण उपायों से लिया गया स्वराज्य भी हिंसा पूर्ण होगा और वह दुनिया के लिए तथा खुद भारत के लिए भय का कारण सिद्ध होगा।
गंदे साधनों से मिलने वाली चीज भी गंदी ही होगी। इसलिए राजा को मारकर राजा और प्रजा एक से नहीं बन सकेंगे। मालिक का सिर काटकर मजदूर मालिक नहीं हो सकेंगे। यही बात सब पर लागू की जा सकती हैं।
कोई असत्य से सत्य को नहीं पा सकता। सत्य को पाने के लिए हमेशा सत्य का आचरण करना ही होगा। अहिंसा और सत्य की तो जोड़ी है नᣛ? हरगिज नहीं। सत्य में अहिंसा छिपी हुई है और अहिंसा में सत्य। इसलिए मैंने कहा है कि सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो रुख हैं। दोनों की कीमत एक ही है। केवल पढ़ने में ही फर्क है; एक तरफ अहिंसा है, दूसरी तरफ सत्य। पूरी-पूरी पवित्रता के बिना अहिंसा और सत्य निभ ही नहीं सकते। शरीर या मन की अपवित्रता को छिपाने से असत्य और हिंसा ही पैदा होगी।
इसलिए सत्यवादी, अहिंसक और पवित्र समाजवादी की दुनिया में या हिंदुस्तान में समाजवाद फैला सकता है।
उन्होंने सोचा कि बड़े शहर कायम करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों की टीलियाँ और वेश्याओं की गलियाँ पैदा होंगे; गरीब अमीरों से लूटे जाएँगे। इसलिए उन्होंने छोटे गाँवों से ही संतोष माना।
उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवार की बनिस्बत नीति का बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंने राजाओं को नीतिवान पुरुषों-ऋषियों और फकीरों-से कम दरजे का माना।
ऐसी जिस प्रजा की कठन है, वह प्रजा दूसरों को सिखाने लायक है; वह दूसरों से सीखने लायक नहीं है।
इस राष्ट्र में अदालतें थी, वकील थे, डॉक्टर-वैद्य थे। लेकिन वे सब ठीक ढँग से नियम के मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये धंधे बड़े धंधे नहीं है। और वकील, डॉक्टर वगैरा लोगों में लूट नहीं चलाते थे, वे तो लोग के आश्रित थे। वे लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इंसाफ काफी अच्छा होता था। अदालतों में न जाना लोगों का ध्येय था। उन्हें भरमाने वाले स्वार्थी लोग समाज में नहीं थे। इतनी सड़न भी सिर्फ राजा और राजधानी के आस-पास ही थी। यों आम प्रजा तो उनसे स्वतंत्र रहकर अपने खेंतो का मालिकी हक भोगती थी-खेती करके अपना निर्वाह करती थी। उसके पास सच्चा स्वराज्य था।
ऐसी नम्रता-शून्यता-आदत डालने से कैसे आ सकती है? लेकिन व्रतों को सही ढँग से समझने से नम्रता अपने-आप आने लगती है। सत्य का पालन करने की इच्छा रखने वाला अहंकारी कैसे हो सकता है? दूसरे के लिए प्राण न्यौछावर करने वाला अपनी जगह बनाने कहाँ जाएᣛ? उसने तो जब प्राण न्यौछावर करने का निश्चय किया तभी अपनी देह को फेंक दिया। ऐसी नम्रता का मतलब पुरुषार्थ का अभाव तो नहीं है? ऐसा अर्थ हिंदू धर्म में कर डाला गया है सही। और इसीलिए आलस्य को और पाखंड को बहुतेरे स्थानों पर जगह मिल गई है। सचमुच तो नम्रता के मानी हैं तीव्रतम पुरुषार्थ, सख्त-से-सख्त मेहनत। लेकिन वह सब परमार्थ के लिए होना चाहिए। ईश्वर खुद चौबीसों घंटे एक साँस से काम करता रहता है, अंगड़ाई लेने तक की फुरसत नहीं लेता। उसके हम हो जाएँ, उसमें हम मिल जाएँ, तो हमारा उद्यम उसके जैसा ही अतंद्रित हो जाएगा-होना चाहिए।
भगवान के नाम पर किया गया और उसे समर्पित किया गया कोई भी काम छोटा नहीं है। इस तरह किए गए हर एक छोटे या बड़े काम का समान मूल्य है। कोई भंगी यदि अपना काम भगवान की सेवा भावना से करता हो तो उसके और राजा के काम का, जो अपनी प्रतिभा का उपयोग भगवान के नाम पर और ट्रस्टी की तरह करता है, समान महत्त्व है।
अहिंसा का पुजारी उपयोगितावाद (बड़ी-से-बड़ी संख्या का ज्यादा-से-ज्यादा हित) का समर्थन नहीं कर सकता। वह तो 'सर्वभूत-हिताय' यानी सबके अधिकतम लाभ के लिए ही प्रयत्न करेगा और इस आदर्श की प्राप्ति में मर जाएगा। इस प्रकार वह इसलिए मरना चहेगा कि दूसरे जी सकें। दूसरों के साथ-साथ वह अपनी सेवा भी आप मरकर करेगा। सबके अधिकतम सुख के भीतर अधिकांश का अधिकतम सुख भी मिला हुआ है। और इसलिए अहिंसावादी और उपयोगवादी अपने रास्ते पर कई बार मिलेंगे। किंतु अंत में ऐसा भी अवसर आएगा, जब उन्हें अलग-अलग रास्ते पकड़ने होंगे और किसी-किसी दशा में एक-दूसरे का विरोध भी करना होगा। तर्कसंगत बने रहने के लिए उपयोगितावादी अपने को कभी बलि नहीं कर सकता। परंतु अहिंसावादी हमेशा मिट जाने को तैयार रहेगा।
जब तक सेवा की जड़ प्रेम या अहिंसा में न हो तब तक वह संभव ही नहीं है। सच्चा प्रेम समुद्र की तरह निस्सीम होता है और हृदय के भीतर ज्वार की तर उठकर बढ़ते हुए वह बाहर फैल जाता है तथा सीमाओं को पार करके दुनिया के छोरों तक जा पहुँचता है। सेवा के लिए आवश्यक दूसरी चीज है शरीर-श्रम, जिसे गीता में यज्ञ कहा गया है; शरीर-श्रम के बिना भी सेवा असंभव है। सेवा के लिए जब कोई पुरुष स्त्री शरीर-श्रम करती है, तभी उसे जीने का अधिकार प्राप्त होता है।
जब तक हम अपना अहंकार भूलकर शून्यता की स्थिति प्राप्त नहीं करते, तब तक हमारे लिए अपने दोषों को जीतना संभव नहीं है। ईश्वर पूर्ण आत्मा-समर्पण के बिना संतुष्ट नहीं होता। वास्तविक स्वतंत्रता का इतना मूल्य वह अवश्य चाहता है। और जब मनुष्य अपना ऐसा समर्पण कर चुकता है तब तुरंत ही वह अपने को प्राणिमात्र की सेवा में लीन पाता है। यह सेवा ही तब उसके आनंद और आमोद का विषय हो जाती है। तब वह एक बिलकुल नया ही आदमी बन जाता है और ईश्वर की इस सृष्टि की सेवा में अपने को खपाते हुए कभी नहीं थकता।
इस सत्य की भक्ति के कारण ही हमारी हस्ती हो। उसी के लिए हमारा हर एक काम, हर एक प्रवृत्ति हो। उसी के लिए हम हर साँस लें। ऐसा करना हम सीखें तो दूसरे सब नियमों के पास भी आसानी से पहुँच सकते हैं; और उनका पालन भी आसान हो जाएगा। सत्य के बगैर किसी भी नियम का शुद्ध पालन नामुमकिन है।
सत्य की खोज करने वाला, अहिंसा बरतने वाला परिग्रह नहीं कर सकता। परमात्मा परिग्रह नहीं करता। अपने लिए जरूरी चीज वह रोज पैदा करता है। इसलिए अगर हम उस पर पूरा भरोसा रखते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हमारी जरूरत की चीजें वह रोजाना देता है, और देगा।
साधन और साध्य
लोग कहते हैं, 'आखिर साधन तो साधन ही हैं।' मैं कहूँगा, 'आखिर तो साधन ही सब कुछ हैं।' जैसे साधन होंगे वैसा ही साध्य होगा। साधन और साध्य को अलग करने वाली कोई दीवार नहीं है। वास्तव में सृष्टिकर्ता ने हमें साधनों पर नियंत्रण (और वह भी बहुत सीमित नियंत्रण) दिया है; साध्य पर तो कुछ भी नहीं दिया। लक्ष्य की सिद्धि ठीक उतनी ही शुद्ध होती है, जितने हमारे साधन शुद्ध होते हैं। यह बात ऐसी है जिसमें किसी अपवाद की गुंजाइश नहीं है।
हिंसा पूर्ण उपायों से लिया गया स्वराज्य भी हिंसा पूर्ण होगा और वह दुनिया के लिए तथा खुद भारत के लिए भय का कारण सिद्ध होगा।
गंदे साधनों से मिलने वाली चीज भी गंदी ही होगी। इसलिए राजा को मारकर राजा और प्रजा एक से नहीं बन सकेंगे। मालिक का सिर काटकर मजदूर मालिक नहीं हो सकेंगे। यही बात सब पर लागू की जा सकती हैं।
कोई असत्य से सत्य को नहीं पा सकता। सत्य को पाने के लिए हमेशा सत्य का आचरण करना ही होगा। अहिंसा और सत्य की तो जोड़ी है नᣛ? हरगिज नहीं। सत्य में अहिंसा छिपी हुई है और अहिंसा में सत्य। इसलिए मैंने कहा है कि सत्य और अहिंसा एक ही सिक्के के दो रुख हैं। दोनों की कीमत एक ही है। केवल पढ़ने में ही फर्क है; एक तरफ अहिंसा है, दूसरी तरफ सत्य। पूरी-पूरी पवित्रता के बिना अहिंसा और सत्य निभ ही नहीं सकते। शरीर या मन की अपवित्रता को छिपाने से असत्य और हिंसा ही पैदा होगी।
इसलिए सत्यवादी, अहिंसक और पवित्र समाजवादी की दुनिया में या हिंदुस्तान में समाजवाद फैला सकता है।
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