Wednesday, 22 February 2017

75 स्फुट वचन

आदिवासी

'आदिवासी' नाम उन लोगों को दिया गया है, जो कि पहले से ही इस देश में बसे हुए थे। उनकी आर्थिक स्थिति हरिजनों से शायद ही अच्‍छी होगी। लंबे अरसे से अपने-आप को 'ऊँचे वर्गों' के नाम से पुकारने वाली हमारी जनता ने उनके प्रति जो बेपरवाही बताई है, उसका परिणाम उन्‍हें भोगना पड़ा है। आदिवासियों के प्रश्‍न को रचनात्‍मक कार्यक्रम में खास स्‍थान मिलना चाहिए। सुधारकों के लिए-प्रचारकों ने ही यह काम किया है। यद्यपि उन्‍होंने इस काम में बहुत मेहनत की है, तो भी उसका काम जैसे चाहिए था वेसा फल-फूला नहीं; क्‍योंकि उनका अंतिम हेतु आदिवासियों को ईसाई बनाना था और उन्‍हें हिंदुस्‍तानी मिटाकर अपने-जैसा परदेशी बना लेने का था। जो भी हो, परंतु अगर हम अहिंसा के आधार पर स्‍वराज्‍य चाहते हैं, तो कनिष्‍ठ-से-कनिष्‍ठ वर्ग की तरफ से भी हम बेपरवाह नहीं हो सकते। परंतु आदिवासियों की तो संख्‍या इतनी बड़ी है कि उनको कनिष्‍ठ गिना ही नहीं जा सकता।


अनुशासन

आजादी के सर्वोच्‍च रूप के साथ ज्‍यादा-से-ज्‍यादा अनुशासन और नम्रता होनी चाहिए; दोनों का अटूट संबंध है। अनुशासन और नम्रता से आई हुई आजादी ही सच्‍ची आजादी है। अनुशासन से अनियंत्रित आजादी, आजादी नहीं स्‍वेच्‍छाचारिता है; उससे स्‍वयं हमारे और हमारे पड़ोसियों के खिलाफ अभ्रदता सूचित होती है।

हमें दृढ़तापूर्वक कठोर अनुशासन का पालन करना सीखना चाहिए। तभी हम कोई बड़ी और स्‍थायी वस्‍तु प्राप्‍त कर सकेंगे। और यह अनुशासन कोरी बौद्धिक चर्चा करते रहने से या तर्क और विवेक-बुद्धि को अपील करते रहने से नहीं आ सकता। अनुशासन विपत्ति की पाठशाला में सीखा जाता है। और जब उत्‍साही युवक बिना किसी ढाल के जिम्‍मेदारी के काम उठाएँगे और उसके लिए अपने को तैयार करेंगे, तब वे समझेंगे कि जिम्‍मेदारी और अनुशासन कया हैं।


डॉक्‍टर

डॉक्‍टर हमें धर्म से भ्रष्‍ट करते हैं, यह साफ और सीधी बात है। वे हमें स्वच्छंद बनने को ललचाते हैं। इसका परिणाम यह आता है कि हम नि:सत्‍त्‍व और नामर्द बनते हैं।

सामान्‍य तौर पर इस धंधे से मेरा जो विरोध है, उसका कारण यह है कि उसमें आत्‍मा के प्रति कुछ भी ध्‍यान नहीं दिया जाता; और इस शरीर जैसे नाजुक यंत्र को सुधारने का प्रयत्‍न करने में जो श्रम किया जाता है, वह न-कुछ जैसी वस्‍तु के लिए ही किया जाता है। इस प्रकार आत्‍मा का ही इनकार करने से यह धंधा मनुष्‍यों को दया के पात्र बना देता है और मनुष्‍य के गौरव और आत्‍म -संयम को घटाने में मदद करता है।


पोशाक

किसी भारतीय के लिए उसकी राष्‍ट्रीय पोशाक ही सबसे ज्‍यादा स्‍वाभाविक और शोभाप्रद है। मैं ऐसा मानता हूँ कि हमारा यूरोपीय पोशाक की नकल करना हमारे पतन की चिह्न है; उससे हमारा पतन, हमारा अपमान और हमारी दुर्बलता सूचित होती है। अपनी ऐसी पोशाक को छोड़कर, जो भारतीय जलवायु के सबसे ज्‍यादा अनुकूल है, जो सादगी, कला और सस्‍तेपन में दुनिया में अपनी जोड़ नहीं रखती और जो स्‍वास्‍थ्‍य तथा स्‍वच्‍छता की आवश्‍यकताओं को पूरा करती है, हम एक राष्‍ट्रीय पाप कर रहे हैं।

मेरा संकीर्ण राष्‍ट्रप्रेम टोप का विरोध करता है, किंतु मेरा छिपा हुआ विश्‍व-प्रेम उसे यूरोप की इनी-गिनी बहुमूल्‍य देनों में से एक मानता है। टोप के खिलाफ इस देश में इतनी उग्र‍ विरोध-भावना न होती, तो मैं टोप के प्रचार के लिए संघटित संस्‍था का अध्‍यक्ष बन जाता।

भारत के शिक्षित लोगों ने (यहाँ की जलवायु में) पतलून जैसे अनावश्‍यक, अस्‍वास्‍थ्‍यकर और असुंदर परिधान को अपनाकर तथा टोप को स्‍वीकार करने में आम तौर पर हिचकिचाहट प्रकट करके भूल की है। लेकिन मैं जानता हूँ कि राष्‍ट्रीय रुचियों और अरुचियों के पीछे कोई विवेक नहीं होता।


झंडा

झंडे की जरूरत सब देशों को होती है। उसके लिए लाखों-करोड़ों ने अपने प्राण दिए हैं। इसमें संदेह नहीं कि यह एक प्रकार की मूर्तिपूजा है, जिसे नष्‍ट करना पाप-जैस होगा करण, झंडा अमुक आदर्शों का प्रतीक होता है। जब यूनियन जैक फहराया जाता है तब अँग्रेजों के हृदय में जो भाव उठाते हैं, उनकी गहराई और तीव्रता को मापना कठिन है। अमेरिका के रेखाओं और तारकों से अंकित झंडे में अमेरिका वालों को जाने कितना गहरा अर्थ मिलता है। इसी तरह इस्‍लाम के अनुयायियों में उनका चंद्र और तारों से अंकित झंडा उत्‍तम वीरता के भाव जगाता है। हम भारतीयों को याली हिंदुओें, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों, पारसियों और भारत को अपना देश मानने वाले अन्‍य सब लोगों को अपना एक सर्व स्‍वीकृत झंडा तक करना चाहिए, जिसके लिए हम मरें और जिएँ।


वकील

वकील का कर्त्‍तव्‍य हमेशा न्‍यायाधीशों के सामने सत्‍य को रखना और सत्‍य पर पहुँचने में उनकी मदद करना है। उनका काम अपराधियों को निरपराधी सिद्ध करना कदापि नहीं है।


नेतृत्‍व

अगर हम टोलाशाही की स्थिति को टालना चाहते हैं और यह इच्‍छा रखते हैं कि देश की व्‍यवस्थित प्रगति हो, तो लोग जनता का नेतृत्‍व करने का दावा करते हैं उन्‍हें जनता का नेतृत्‍व मानने से यानी जनता जो कहे वैसा करने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर देना चाहिए। मैं मानता हूँ कि महज अपने मत की घोषणा करना और फिर लोगों के सामने झुक जाना पर्याप्‍त नहीं है। यदि महत्‍त्‍व के मामलों में लोगों का मत नेताओं की बुद्धि को पटता न हो, उन्‍हें चाहिए कि वे उसके खिलाफ काम करें।

नेता का पद समान पदवालों में प्रथम माने गए व्‍यक्ति का पद है। किसी-न-किसी को प्रथम स्‍थान देना ही पड़ता है, लेकिन श्रृंखला की सबसे कमजोर कड़ी से ज्‍यादा शक्तिशाली न तो वह होता है, न उसे होना चाहिए। एक बार नेता का चुनाव करने के बाद हमारा कर्त्‍तव्‍य हो जाता है कि हम उसका अनुसरण करें। यदि ऐसा न किया जाए तो श्रृंखला टूट जाती है और सारा संघटन शिथिल हो जाता है।


संगीत

संगीत वस्‍तुत: एक पुरानी और पवित्र कला है। सामदेव के सूक्‍त संगीत का भंडार हैं और कुरान की किसी भी आयत का पाठ संगीत का आश्रय लिए बिना नहीं हो सकता। डेविड के भाक्तिपूर्ण गीत हमें आनंद के लोग में पहुँचा देते हैं और सामवेद के सूक्‍तों का स्‍मरण कराते हैं। हमें इस कला को पुनर्जीवित करना चाहिए और उसका प्रचार करने वालों संस्‍थाओं को आश्रय देना चाहिए।

हम संगीत-सम्‍मेलनों में हिंदू और मुसलमान संगीतज्ञों को साथ-साथ बैठे हुए और उसमें हिस्‍सा लेते हुए देखते हैं। अपने राष्‍ट्रीय जीवन के दूसरे क्षेत्रों में हम भाईचारे की यही भावना कब देखेंगे ऐसा होगा? उस समय हमारे होठों पर राम और रहमान का नाम एक साथ होगा।


दलों की अनेकता

यदि हममें उदारता और सहिष्‍णुता न हो, तो हम आपने मतभेद कभी भी मित्रतापूर्वक नहीं सुलझा सकेंगे; ओर उस हालत में हमें हमेशा ही तीसरे पक्ष का फैसला स्‍वीकार करने के लिए यानी विदेशी सत्‍ता की गुलामी अपनाने के लिए लाचार होना पड़ेगा।

किसी भी विचारधारा के अनुयायी यह दावा नहीं कर सकते कि उनके ही निर्णय हमेशा सही होते हैं। हम सबसे गलतियाँ हो सकती हैं और हमें अक्‍सर ही अपने निर्णय बाद में बदलने पड़ते हैं। हमारे इस विशाल देश में सब ईमानदार विचारधाराओं के लिए गुंजाइश होनी चाहिए। और इसलिए अपने प्रति और दूसरों के प्रति हमारा कम-से-कम यह कर्त्‍तव्‍य तो है ही कि हम अपने विरोधी का दृष्टिकोण समझने की कोशिश करें; और यदि हम उसे स्‍वीकार न कर सकते हों तो उसका उतना आदर अवश्‍यक करें जितना हम चाहेंगे कि वह हमारे दृष्टिकोण का करे। यह चीज स्‍वस्‍थ सार्वजनिक जीवन का और इसलिए स्‍वराज्‍य की योग्‍यता का एक अनिवार्य प्रमाण है।


राजनीति

ऐसे व्‍यापक सत्‍य-नारायण के प्रत्‍यक्ष दर्शन के लिए जीवमात्र के प्रति आत्‍मवत् प्रेम की परम आवश्‍यक है। और जो मनुष्‍य ऐसा करना चाहता है, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र से बाहर नहीं रह सकता। यही कारण है कि सत्‍य की मेरी पूजा मुझे राजनीति में खींच लाई है। जो मनुष्‍य यह कहता है कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है वह धर्म को नहीं जानता, ऐसा कहने में मुझे संकोच नहीं होता और न ऐसा कहने में मैं अविनय करता हूँ।


पंडे और पुजारी

यह एक दु:खदायी हकीकत है, किंतु इतिहास इसकी गवाही देता है कि पंडे और पुजारी ही, जिन्‍हें कि धर्म के सच्‍चे रक्षक होना चाहिए था, अपने-अपने धर्म के पतन और नाश कारण सिद्ध हुए हैं।


सार्वजनिक कोष

अगर हम मिले हुए पैसे की पाई-पाई का हिसाब नहीं रखते और कोष का विचारपूर्वक उचित उपयोग नहीं करते, तो सार्वजनिक जीवन से हमें निकाल दिया जाना चाहिए।

सार्वजनिक धन भारत की उस गरीब जनता का है, जिससे ज्‍यादा गरीब इस दुनिया में और कोई नहीं है। इस धन के उपयोग में हमें बहुत ज्‍यादा सावधान तथा सजग रहना चाहिए और जनता से हमें जो पैसा मिलता है उसकी पाई-पाई का हिसाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए।


सार्वजनिक संस्थाएँ

अनेकानेक सार्वजनिक संस्‍थाओं की उत्‍पत्ति और उनके प्रबंध की जिम्‍मेदारी संभालने के बाद मैं इस दृढ़ निर्णयपर पहुँचा हूँ कि किसी भी सार्वजनिक संस्‍था को स्‍थायी कोष पर निभने का प्रयत्‍न नहीं करना चाहिए। इसमें उसकी नैतिक अधोगति का बीज छिपा रहता है। ... देखा यह गया है कि स्‍थायी संपति के भरोसे चलने वाली संस्‍था लोकमत से स्‍वतंत्र हो जाती है, और कितनी ही बार वह उलटा आचरण भी करती है। हिंदुस्‍तान में हमें पग-पग पर इसका अनुभव होता है। कितनी ही धार्मिक मानी जाने वाली संस्‍थाओं के हिसाब-किताब का कोई ठिकाना नहीं रहता उनके ट्रस्‍टी ही उनके मालिक बन बैठे हैं और वे किसी के प्रति उत्‍तरदायी भी नहीं हैं। जिस तरह प्रकृति स्‍वयं प्रतिदिन उत्‍पन्‍न करती और प्रतिदिन खाती है, वैसी ही व्‍यवस्‍था सार्वजनिक संस्‍थाओं की भी होनी चाहिए, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। जिस संस्‍था को लोग मदद देने के लिए तैयार न हों, उसे सार्वजनिक संस्‍था के रूप में जीवित रहने का अधिकार ही नहीं है।

मैं इस दृढ़ निश्‍चय पर पहुँचा हूँ कि कोई भी सुपात्र संस्‍था जनता से मिलने वाली मदद के अभाव के कारण नहीं मरती। मरने वाली संस्‍थाओं के मरने का कारण या तो रहा है कि उनमें ऐसी कोई उपयोगिता शेष नहीं रह गई थी, जिससे आकर्षित होकर जनता उनकी मदद करती, अथवा उनके संचालकों ने अपनी श्रद्धा या दूसरे शब्‍दों में अपनी जीवन-क्षमता खो दी थी।

हमारी आर्थिक स्थिति नहीं, बल्कि हमारी नैतिक स्थिति ही अनिश्चित है। अपने कार्यकर्ताओं की चारित्रिक पवित्रता की दृढ़ नींव पर खड़े हुए किसी भी कार्य या आंदोलन को अर्थाभाव के कारण नष्‍ट हो जाने का डर कभी नहीं होता। ... हमें पेसे के लिए सामान्‍य जनता के पास पहुँचना चाहिए। हमारे मध्‍यम वर्गों और गरीब वर्गों के लोग कितने भिखारियों को, कितने मंदिरों को सहायता देते हैं; ये लोग चंद अच्‍छे कार्यकर्ताओं का भरण-पोषण क्‍यों नहीं करेंगे? हमें घर-घर जाकर भीख माँगनी चाहिए, अनाज माँगना चाहिए; और कुछ न मिले तो चंद पैसे ही माँगना और स्‍वीकार कर लेना चाहिए। इस मामले में हमे वैसा ही करना चाहिए, जैसा कि बिहार और महाराष्‍ट्र में किया जा रहा है। ...लेकिन याद रखिए कि सफलता आपकी ध्‍येयनिष्‍ठा पर, कार्य के प्रति आपकी भक्ति पर और आपके चरित्र की पवित्रता पर निर्भर करेगी। ऐसे कार्यों के लिए लोग तब तक नहीं देंगे जब तक उन्‍हें हमारी नि:स्‍वार्थता का निश्‍चय न हो जाएगा।


लोकमत

लोकमत ही एक ऐसी शक्ति है, जो समाज को शुद्ध और स्‍वस्‍थ रख सकती है।

लोकमत से आगे बढ़कर कानून बनाना प्राय: निरर्थक ही नहीं, उससे भी ज्‍यादा बुरा सिद्ध होता है।

स्‍वस्‍थ लोकमत जो प्रभाव निहित होता है, उसके महत्‍त्‍व को अभी हमने पूरा-पूरा पहचाना नहीं। लेकिन जब लोकमत हिंसापूर्ण और आक्रामक बश्‍न जाता है तब वह असह्य हो जाता है।


सार्वजनिक कार्यकर्ता

आधुनिक सार्वजनिक जीवन में ऐसी एक प्रवृत्ति रूढ़ हो गई है कि जब तक कोई सार्वजनिक कार्यकर्ता अमुक व्‍यवस्‍था-तंत्र के अंग की तरह अपना काम बखूबी करता हो तब उसके चरित्र की ओर दृष्टिपात न किया जाए। कहा जाता है कि चरित्र हर एक व्‍यक्ति की निजी वस्‍तु है, उसकी चिंता वही करेगा। मैंने लोगों को अक्‍सर इस तम का समर्थन करते हुए देखा है। लेकिन मुझे कभी उसका औचित्‍य समझ में नहीं आया, उसे अपनाना तो दूर रहा। जिन संस्‍थाओं ने अपने कार्यकर्ताओं के वैयक्तिक चरित्र को महत्‍त्‍व की वस्‍तु नहीं माना है, उन्‍हें अपनी इस नीति के भयंकर परिणाम भुगतने पड़े हैं।


समय की पाबंदी

हमारे नेता और कार्यकर्ता वक्‍त के पाबंद बनें, तो राष्‍ट्र को उससे निश्चित लाभ होगा। कोई आदमी वस्‍तुत: जितना काम कर सकता है, उससे ज्‍यादा करने की उससे आशा नहीं की जा सकती। दिनभर के काम के बाद भी अगर काम पूरा न हो, या अपना खाना छोड़कर अथवा नींद या आमोद-प्रमोद की उपेक्षा करके उसे काम करना पड़े, तो समझना चाहिए कि कहीं-न-कहीं कोई अव्‍यवस्‍था जरूर है। मुझे तो इसमें कोई शक नहीं कि अगर हम अपने कार्यक्रम के अनुसार नियमित रूप से कार्य करने की आदत डालें, तो राष्‍ट्र की कार्य-क्षमता बढ़ेगी, अपने ध्‍येय की ओर हमारी प्रगति तेज गति से होगी और कार्यकर्ता ज्‍यादा तंदुरुस्‍त और दीर्घजीवी होंगे।


घुड़दौड़

घोड़ों की परवरिश के लिए शर्त बदना और उसके बारे में लोगों को उत्‍तेजित करना बिलकुल अनावश्‍यक है। घुड़दौड़ की शर्त से मनुष्‍य के दुर्गुणों का पोषण होता है और अच्‍छी खेती के लायक जमीन तथा पैसे का बिगाड़ होता है। शर्त बदलकर जुआ खेलने वाले अच्‍छे-अच्‍छे लोगों को मैंने पामाल और तबाह होते देखा है। ऐसे लोगों को किसने नहीं देखा है? यह मौका पश्चिम के दुर्गुणों को छोड़कर उसके सद्गुण स्‍वीकार करने का है।


शरणार्थी

उन्‍हें नम्रता का पाठ सीखना चाहिए, ऐसी नम्रता जिससे वे दूसरों के दोष देखने और उनकी टीका करने के बदले अपने दोष देख सकें। उनकी टीका कई बार बहुत कड़ी होती है, कई बार अनुचित होती है और कभी-कभी ही उचित होती है। अपने दोष देखने से इंसान ऊपर उठता है, दसरों के दोष निकालने से नीचे गिरता है। इसके सिवा दु:खी लोगों को सहयोग जीवन की कला और उसमें रहने वाले गुणों को समझ लेना चाहिए। यह सीखते हुए वे देखेंगे कि सहयोग का घेरा बड़ा होता जाता है, जिससे उसमें सारे इंसान समा जाते हैं। अगर दु:खी लोग इतना करना सीख जाए, तो उनमें से कोई अपने-आपको अकेला न माने। तब सभी, चाहे वे जिस प्रांत के हों, अपने को एक मानेंगे और सुख खोजने के बदले मनुष्‍य मात्र के कल्‍याण में ही अपना कल्‍याण देखेंगे। इसका मतलब कोई यह न करे कि आखिर में सबको एक ही जगह रहना होगा। यह हमेशा असंभव वही रहेगा। और जब लाखों का सवाल है। तब तो बिलकुल असंभव है। मगर इसका मतलब इतना जरूर है कि हर एक अपने को समुद्र के एक बूँद के समान समझकर दूसरे के साथ संबंध रखे; फिर भले ही दु:ख आ पड़ने से पहले सबके दरजे अलग-अलग रहे हों, किसी का नीचा रहा हो, किसी का ऊँचा, और सभी अलग-अलग प्रांतों के हों। और फिर कोई ऐसा तो कहा ही नहीं सकता कि मुझे तो फलां जगह पर ही रहना है। तब किसी न तो अपने दिल में कोई शिकायत रहेगी और न कोई प्रकट रूप में शिकायत करेगा। ऐसी अच्‍छी व्‍यवस्‍था में वे अपंग या लाचार बनकर नहीं रहेंगे।

ऐसे सभी दु:खी खुद को दिया गया काम करेंगे और सभी के खाने, पहनने और रहने का अच्‍छा इंतजाम हो जाएगा। ऐसा करने से स्‍वावलंबी बनेंगे। स्‍त्री-पुरुष सभी एक-दूसरे को बराबर मानेंगे। कई काम तो सभी करेंगे, जैसे कि पाखाने साफ करना, कूड़ा-करकट निकालना वगैरा। किसी काम को ऊँचा और किसी काम को नीचा नहीं माना जाएगा। ऐसे समाज में कोई आवारा, आलसी या निकम्‍मा नहीं रहेगा।


नदियाँ

गंगा और यमुना नाम की इन दो नदियों के सिवा हमारे देश में और भी गंगाएँ और यमुनाएँ हैं, उनके वास्‍तविक नाम चाहे भिन्‍न हों। वे हमें उस त्‍याग की याद दिलाती हैं, जो कि जिस देश में हम रहते हैं उसके लिए हमें करना होगा। वे हमें उस शुद्धि की याद दिलाती हैं जिसके लिए निरंतर प्रयत्‍न करना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे नदियाँ स्‍वयं उसके लिए क्षण-प्रतिक्षण प्रयत्‍न करती हैं। आज के जमाने में तो इन नदियों से हम केवल यही काम लेना जानतें हैं कि उनमें अपनी गंदी मारियाँ बहावें और उनकी छाती पर अपनी नावें चलावें और इस प्रकार उन्‍हें और भी गंदा करें। हमारे पास इतना समय नहीं है कि... हम उनके पास जाएँ और ध्‍यानस्‍थ होकर उनका वह संदेश सुनें, जो वे हमारे कानों में धीर-धीर गुनगुनाती हैं।

73 भारत और विश्वशांति

दुनिया के सुविचारशील लोग आज ऐसे पूर्ण स्‍वतंत्र को नहीं चाहते जो एक-दूसरे से लड़ते हों, बल्कि एक-दूसरे के प्रति मित्रभाव रखने वाले अन्‍योन्‍याश्रित राज्‍यों के संघ को चाहते हैं। भले ही इस उद्देश्‍य की सिद्धि का दिन बहुत दूर हो। मैं अपने देश के लिए कोई भारी दावा नहीं करना चा‍हता। लेकिन यदि हम पूर्ण स्‍वतंत्रता के बजाय अन्‍योन्‍याश्रित राज्‍यों के विश्‍वसंघ की तैयारी जाहिर करें, तो इसमें हम न तो कोई बहुत भारी बात ही कहते हैं और न वह असंभव ही है।

मेरी आकांक्षा का लक्ष्‍य स्‍वतंत्रता से ज्‍यादा ऊँचा है। भारत की मुक्ति के द्वारा मैं पश्चिम के भीषण शोषण से दुनिया के कई निर्बल देशों का उद्धार करना चाहता हूँ। भारत के अपनी सच्‍ची स्थिति को प्राप्‍त करने का अनिर्वाय परिणाम यह होगा कि हर एक देश वैसा ही कर सकेगा और करेगा।

मेरा दृढ़ विश्‍वास है कि भारत अपनी स्‍वतंत्रता अहिंसक उपायों से प्राप्‍त करे, तो फिर वह बड़ी स्‍थलसेना, उतनी ही बड़ी जल सेना और उससे भी बड़ी वायु सेना रखने की इच्‍छा नहीं करेगा। यदि आजादी की अपनी लड़ाई में अहिंसक विजय प्राप्‍त करने के लिए उसकी आत्‍म-चेतना को जितनी ऊँचाई तक उठना चाहिए उतनी ऊँचाई तक‍ वह उठ सकी, तो दुनिया के माने हुए मूल्‍यों में परिवर्तन हो जाएगा और लड़ाइयों के साज-सामान का अधिकांश निरर्थक सिद्ध हो जाएगा। ऐसा भारत भले महज एक सपना हो, बच्‍चों की जैसी कल्‍पना हो। लेकिन मेरी राय में अहिंसा के द्वारा भारत के स्‍वतंत्र होने का फलितार्थ तो बेशक यही होना चाहिए। ऐसी स्‍वतंत्रता, वह जब भी आयगी जब... ब्रिटेन के साथ सज्‍जनोचित समझौते के जरिए आएगी। लेकिन तब जिस ब्रिटेन से हमारा समझौता होगा वह दुनिया में सर्वश्रेष्‍ठ स्‍थान लेने के लिए तरह-तरह की कोशिश करने वाला आज का साम्राज्‍यवादी और घमण्‍डी ब्रिटेन नहीं होगा, बल्कि मानव-जाजि की सुख-शांति के लिए नम्रतापूर्वक प्रयत्‍न करने वाला ब्रिटेन होगा।

तब भारत को ब्रिटेन के लूट-मार के युद्धों में ब्रिटेन के साथ आज की तरह लाचार होकर नहीं घिसटना होगा। तब उसकी आवाज दुनिया के सारे हिंसक बलों को नियंत्रण में रखने की कोशिश करने वाले एक शक्तिशाली देश की आवाज होगी।

मैं अत्‍यंत नम्रतापूर्वक यह सुझाने का साहस करता हूँ कि यदि भारत ने अपना लक्ष्‍य सत्‍य और अहिंसा की राहा से प्राप्‍त करने में सफलता पायी, तो उसकी यह सफलता जिस विश्‍वशांति के लिए दुनिया के तमाम राष्‍ट्र तड़प रहे हैं उसे नजदीक लाने में एक मूल्‍यवान कदम सिद्ध होगी; और तब यह भी कहा जा सकेगा कि ये राष्‍ट्र उसे स्‍वेच्‍छा पूर्वक जो सहायता पहुँचा रहे हैं, उस सहायता का उसने थोड़ा-बहुत मूल्‍य अवश्‍य चुकादिया है।

जब भारत स्‍वावलंबी और स्‍वाश्रयी बन जाएगा और इस तरह नतो खुद किसी की संपत्ति का लोभ करेगा और न अपनी संपत्ति का शोषण होने देगा, तब वह पश्चिम या पूर्व के किसी भी देश के लिए-उसकी शक्‍त कितनी भी प्रबल क्‍यों न हो-लालच का विषय नहीं रह जाएगा और तब वह खर्चीलें शस्‍त्रास्‍त्रों का बोझ उठाए बिना ही अपने को सुरक्षित अनुभव करेगा। उसकी यह भीतरी स्‍वाश्रयी अर्थ-व्‍यवस्‍था बाहरी आक्रमण के खिलाफ सुदृढ़तम ढाल होगी।

यदि मैं अपने देश के लिए आजादी की माँग करता हूँ, तो आप विश्‍वास कीजिए कि मैं यह आजादी इसलिए नहीं चाहता कि मेरा बड़ा देश, जिसकी आबादी संपूर्ण मानव-जाति का पाँचवाँ हिस्‍सा है, दुनिया की किसी भी दूसरी जाति का, या किसी भी व्‍यक्ति का शोषण करे। आज विश्‍वास कीजिए कि मैं अपनी शक्ति भर अपने देश को ऐसा अनर्थ नहीं करने दूँगा। यदि मैं अपने देश के लिए आजादी चाहता हूँ, तो मुझे यह मानना ही चाहिए कि प्रत्‍येक दूसरी सबल या निर्बल जाति को भी उस आजादी का वैसा ही अधिकार है। यदि मैं ऐसा नहीं मानता हूँ और ऐसी इच्‍छा नहीं करता हूँ, तो उसका यह अर्थ है कि मैा उस आजादी का पात्र नहीं हूँ।

मैं अपने हृदय की गइराई में यह महसूस करता हूँ। ... कि दुनिया रक्‍तपात से बिलकुल ऊब गई है। दुनिया इस असह्रा स्थिति से बाहर निकलने का रास्‍ता खोज रही हैं। और मैं वश्विास करता हूँ तथा उस विश्‍वास में सुख और गर्व अनुभव करता हूँ कि शायद मुक्ति के प्‍यासे जगत को यह रास्‍ता दिखाने का श्रेय भारत की प्राचीन भूमि को ही मिलेगा।

हिंदुस्‍तान की राष्‍ट्रीय सरकार क्‍या नीति अख्तियार करेगी सो मैं नहीं कह सकता। संभव है कि अपनी प्रबल इच्‍छा के रहते हुए भी मैं तब त‍क जीवित न रहूँ। लेकिन अगर उस वक्‍त तक मैं जिंदा रहा, तो अपनी अहिंसक नीति को यथासंभव संपूर्णता के साथ अमल में लाने की सलाह दूँगा। विश्‍व की शांति और नई विश्‍व-व्‍यवस्‍था की स्‍थापना में यहीं हिंदुस्‍तान का सबसे बड़ा हिस्‍सा भी होगा। मुझे आशा तो यह है कि चूँकि हिंदुस्‍तान में इतनी लड़ाकू जातियाँ हैं और चूँकि स्‍वतंत्र हिंदुस्‍तान की सरकार के निर्णय में उन सबका हिस्‍सा होगा, इसलिए हमारी राष्‍ट्रीय नीति का झुकाव मौजूदा सैन्‍यवाद से भिन्‍न किसी अन्‍य प्रकार के सैन्‍यवाद की तरफ होगा। मैं यह उम्‍मीद तो जरूर रखूँ गा कि एक राजनीतिक शस्‍त्र की हैसियत से अहिंसक की व्‍यावहारिक उपयोगिता का हमारा पिछला सारा… प्रयोग बिलकुल विफल नहीं जाएगा और सच्‍चे अहिंसावादियों का एक दल हिंदुस्‍तान में पैदा हो जाएगा।

74 पूर्व का संदेश


अगर हिंदुस्‍तान अपने फर्ज को भूलता है तो एशिया मर जाएगा। यह ठीक ही कहा गया है कि हिंदुस्‍तान कई मिली-जुली सभ्‍यताओं या तहजीबों का घर है, जहाँ वे सब साथ-साथ पनपी हैं। हम सब ऐसे काम करें कि हिंदुस्‍तान एशिया की या दुनिया के किसी भी हिस्‍से की कुचली और चूसी हुई जातियों की आशा बना रहे।

(दिल्‍ली में ता. 2-4-47 के दिल एशियाई कान्‍फारेन्‍स की आखिरी बैठक में भाषण करते हुए गांधीजी ने बताया कि पश्चिम को ज्ञान की रोशनी पूर्व से ही मिली है। इस सिलसिले में उन्‍होंने आगे कहा:।)

इन विद्वानों मे सबसे पहले जरथुश्‍त हुए थे, वे पूरब के थे। उनके बाद बुद्ध, हुए, जो पूरब-हिंदुस्‍तान के-थे। बुद्ध के बाद कौन हुआ? ईशु ख्रिस्‍त। वे भी पूरब के थे। ईशु के पहले मोजेज हुए, जो फिलस्‍तीन के थे, अगरचे उनका जन्‍म मिस्‍त्र में हुआ था। ईशु के बाद मुहम्‍मद हुए। यहाँ मैं राम, कृष्‍ण और दुसरे महापुरुषों का नाम नहीं लेता। मैं उन्‍हें कम महान नहीं मानता। मगर साहित्‍य-जगत उन्‍हें कम जानता है। जो हो, मैं दुनिया के ऐसे किसी भी एक शख्‍स को नहीं जानता, जो एशिया के इन महापुरुषों की बराबरी कर सके। और त‍ब क्‍या हुआ? ईसाइयत जब पश्चिम में पहूँची, तो उसकी शकल बिगड़ गई। मुझे अफसोस है कि मुझे ऐसा कहना पड़ता है। इस विषय में मैं और आगे नहीं बोलूँगा। ... जो बात मैं आपको समझाना चाहता हूँ व‍ह एशिया का पैगाम है। उसे पश्चिम चश्‍मों से या एटम-बम की लकल करने से नहीं सीखा जा सकता। अगर आप पश्चिम को कोई पैगाम देना चाहते हैं, तो वह प्रेम और सत्‍य का ही पैगाम होना चाहिए। ... जमहूरियत के इस जमाने में, गरीब-से-गरीब की जागृति के इस युग में, आप ज्‍यादा-से-ज्‍यादा जोर देकर इस पैगाम का दुनिया में प्रचार कर सकते हैं। चूँकि आपका शोषण किया गया है, इसलिए उसका उसी तरह बदला चुकाकर नहीं, बल्कि सच्‍ची समझदारी के जरिए आप पश्चिम पर पूरी तरह से विजय पा सकते हैं। अगर हम सिर्फ अपने दिमागों से नहीं, बल्कि दिलों से भी इस पैगाम के मर्म को, जिसे एशिया के ये विद्वान हमारे लिए छोड़ गए हैं, एक साथ समझने की कोशिश करें और अगर हम सचमुच उस महान पैगाम के लायक बन जाएँ, तो मुझे विश्‍वास है कि हम पश्चिम को पूरी तरह से जीत लेंगे। हमारी इसी जीत को पश्चिम खुद भी प्‍यार करेगा।

पश्चिम आज सच्‍चे ज्ञान के लिए तरस रहा है। अगु-बमों की दिन-दूनी बढ़ती से वह नाउम्‍मीद हो रहा है। क्‍योंकि अणु-बमों के बढ़ने से सिर्फ पश्चिम का ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का नाश हो जाएगा; मानों बाइबल की भविष्‍य-वाणी सच होने जा रही है और पूरी कयामत होने वाली है। अब यह आपके ऊपर है कि आप दुनिया की नीचता और पापों की तरफ उसका ध्‍यान खींचें और उसे बचावें। ...यही वह विरासत है जो मेरे और आपके पैगंबरों से एशिया को मिली है।

72 भारत में विदेशी बस्तियां

गोआ

आजाद हिंदुस्‍तान में गोआ हिंदुस्‍तान से बिलकुल अलग रहकर अपनी मनमानी नहीं कर सकेगा। गोआ वाले आजाद हिंदुस्‍तान की नागरिकता के हकों का दवा कर सकेंगे और वे उन हकों को पा भी सकेंगे। और इसके लिए उन्‍हें न तो एक गोली चलानी होगी और न एक कतारा खून बहाना होगा।

सचमुच ही फ्रांसीसी और फिरंगी सल्‍तनत में ऐसा कोई खास फर्क नहीं है, जिसकी वजह से एक को ठुकराया जाए और दूसरी को अपनाया जाए। सल्‍तनतों के हाथ हमेशा खून से तर रहे हैं। सारी दुनिया आज इन सल्‍तनतों के बोझ से दबी कराह रही है। अच्‍छी हो कि ये साम्राज्‍यवादी ताकतें जल्‍दी ही अशोक महान की तहर अपनी साम्राज्‍यवाद को छोड़ दें। ... पुर्तगाली सरकार के इंफरमेशन ब्‍यूरो के मुख्‍य अफसर का यह लिखना कि पुर्तगाल गोआ के हिंदुस्‍तानियों की मातृभूमि है, एक हँसी लाने वाली चीज है। जिस हद तक हिंदुस्‍तान मेरी मातृभूमि है, उसी हद में नही है, मगर समूचे भौगोलिक हिंदुस्‍तान के अंदर तो वह है ही। फिर, गोआ के हिंदुस्‍तालियों और पुर्तगालियों के बीच बहुत थोड़ी समानता है-अगर कुछ हो।

फ्रांसीसी बस्तियाँ

उन्‍हीं के सामने जब उनके करोड़ों देशवासियों ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हो रहे हैं, तब इन छोटे-छोटे विदेशी बस्तियों के निवासियों के लिए गुलामी में रहना संभव नहीं है। ... मैं उम्‍मीद करता हूँ कि... महान फ्रांसीसी राष्‍ट्र भारत के या दूसरी जगहों के काले या भूरे लोगों को दबाकर रखने की नीति का हमी कभी नहीं होगा।

71 भारत पाकिस्तान और कश्मीर

हमारे देश की बदकिस्‍मती से हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान नाम के जो दो टुकड़े हुए, उसमें धर्म को ही कारण बनाया गया है। उसके पीछे आर्थिक और दूसरे कारण भले रहे हों, मगर उनकी वजह से यह बँटवारा नहीं हुआ होता। आज हवा में जो जहर फैला हुआ है, वह भी उन्‍हीं सांप्रदायिक कारणों से पैदा हुआ है। धर्म के नाम पर लूट-मार होती है, अधर्म होता है। ऐसा न हुआ होता तो अच्‍छा होता, ऐसा कहना अच्‍छा तो लगता है। मगर इससे हकीकत को बदला नहीं जा सकता।

यह सवाल कई बार पूछा गया है कि दोनों के बीच लडा़ई होने पर क्‍या पाकिस्‍तान के हिंदू हिंदुस्‍तान के हिंदुओं के साथ और हिंदुस्‍तान के मुसलमान पाकिस्‍तान के मुसलमानों के साथ लड़ेंगे? मैं मानता हूँ कि ऊपर बतलाई हुई हालत में वे जरूर लड़ेंगे। मुसलमानों की वफादारी के वचनों पर भरोसा करने में जितना खतरा है, उसके बजाय भरोसा न करने में ज्‍यादा खतरा है। भरोसा करने में भूल हो और खतरे का सामना करना पड़ें, तो बहादुरों के लिए यह मामूली बात होगी।

मौजू ढँग पर इस सवाल को दूसरी तरह से यों रखा जा सकता है कि क्‍या सत्‍य और न्‍याय के खातिर हिंदू हिंदू के खिलाफ और मुसलमान मुसलमान के खिलाफ लड़ेंगाᣛ? इसका जवाब एक उलट-सवाल पूछकर यह दिया जा सकता है कि क्‍यों इतिहास में ऐसे उदाहण नहीं मिलतेᣛ?

इस सवाल को हल करने में सबसे बड़ी उलझन यह है कि सत्‍य की दोनों ही राज्‍यों में उपेक्षा की गई है। मानो सत्‍य की कोई कीमत ही न हो। ऐसी विषम स्थिति में भी हम उम्‍मीद करें कि सत्‍य पर श्रद्धा रखने वाले कुछ लोग हमारे देश में जरूर हैं।

धर्म के नाम पर पाकिस्‍तान कायम हुआ। इसलिए उसको सब तरफ से पाक और साफ रहना चाहिए। गलतियों दोनों तरफ काफी हुईं। मगर क्‍या अब भी हम गलतियाँ करते ही रहें? अगर हम दोनों लड़ेंगे तो दोनों तीसरी ताकत के हाथ में चले जाएँगे। इससे बुरी बात और क्‍या होगी?

अगर (हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान के बीच) लड़ाई छिड़ जाए, तो पाकिस्‍तान के हिंदू वहाँ पाँचवी कतार वाले नहीं बन सकते। कोई भी इसे बरदाश्‍त नही करेगा। अगर वे पाकिस्‍तान के प्रति वफादार नहीं हैं, तो उनको पाकिस्‍तान छोड़ देना चाहिए। इसी तरह जो मुसलमान पाकिस्‍तान के प्रति वफादार हैं, उन्‍हें हिंदुस्‍तानी संघ में नहीं रहना चाहिए। सरकार का फर्ज है कि वह हिंदुओं और सिक्‍खों के लिए इंसाफ हासिल करे। जनता सरकार से अपना मनचाहा करा सकती है। ... मुसलमान लोग यह कहते सुने जाते हैं कि 'हँस के लिया पाकिस्‍तान, लड़ के लेंगे हिंदुस्‍तान'। ... कुछ मुसलमान सारे हिंदुस्‍तान को मुसलमान बनाने की बात सोच रहे हैं। यह काम लड़ाई के जरिए कभी नहीं हो सकेगा। पाकिस्‍तान हिंदू धर्म को कभी बरबाद नहीं कर सकेगा। सिर्फ हिंदू ही अपने-अपको और अपने धर्म को बरबाद कर सकते हैं। इसी तरह अगर पाकिस्‍तान बरबाद हुआ, तो वह पाकिस्‍तान के मुसलमानों द्वारी ही बरबाद होगा, हिंदुस्‍तान के हिंदुओं द्वारा नहीं।

दोनों राज्‍यों के लिए ठीक-ठीक समझौता करने का आम रास्‍ता यह है कि दोनों राज्‍य साफ दिल से अपना पूरा-पूरा दोष स्‍वीकार करें और समझौता कर लें। अगर दोनों में कोई समझौता न हो सके, तो वे सामान्‍य तरीके से पंच-फैसले का सहारा लें। इससे दूसरा कोई जगंली रास्‍जा लड़ाई का है। ... लेकिन आपसी समझौता या पंच-फैसले के अभाव मे लड़ाई के सिवा कोई चारा नहीं रह जाएगा। उस बीच... जिन मुसलमानों ने अपनी इच्‍छा से पाकिस्‍तान जाने का चुनाव नहीं किया है, उन्‍हें उनके पड़ोसी सुरक्षा या सलामती के पक्‍के विश्‍वास के साथ अपने घरों को लौट आने के लिए कहेंगे। यह काम फौज की मदद से नहीं किया जा सकता। यह तो लोगों के समझदार बनने से ही हो सकता है।

हिंदुस्‍तान से हर एक मुसलमान को भगाने और पाकिस्‍तान से हर एक हिंदू और सिक्‍ख को भगाने का नतीजा यह होगा कि दोनों उपनिवेशों में यह आत्‍म घाती नीति बरती गई, तो उससे पाकिस्‍तान और हिंदुस्‍तान दोनों में इस्‍लाम और हिंदू धर्म का नाश हो जाएगा। भलाई सिर्फ भलाई से ही पैदा होती है। प्‍यार से प्‍यार पैदा होता है। जहाँ तक बदला लेने की बात है, इंसान का यही शोभा देता है कि वह बुराई करने वाले को भगवान के हाथ में छोड़ दें।

हिंदुस्‍तान का, हिंदू धर्म का, सिक्‍ख धर्म का और इस्‍लाम का बेबस बनकर नाश होते देखने के बनिस्‍बत मृत्‍यु मेरे लिए सुंदर रिहाई होगी। अगर पाकिस्‍तान में दुनिया के सब धर्मों के लोगों को समान हक न मिले, उनकी जान और माल सुरक्षित न रहे और यूनियन भी पाकिस्‍तान की नकल करे, तो दोनों का नाश निश्चित है। उस हालत में इस्‍लाम का तो हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान में ही नाश होगा-बाकि दुनिया में नहीं; मगर हिंदू धर्म और सिक्‍ख धर्म तो हिंदुस्‍तान के बाहर हैं ही नहीं।

बहुमत वाले लोग अगर अल्‍पमतवालों को इस डर से मार डालें या यूनियन से निकाल दें कि वे सब दगाबाज साबित होंगे, तो यह बहुमत वालों की बुजदिली होगी। अल्‍पमत के हकोंका सावधानी से खयाल रखना ही बहुमत वालों को शोभा देता है। जो बहुमत वालें अल्‍पमत वालों की परवाह नहीं करते वे हँसी के पात्र बनते है। पक्‍का आत्‍म-विश्‍वास और अपने नामधारी या सच्‍चे विरोधी में बहादूरी भरा विश्‍वास ही बहुमत वालों का सच्‍चा बचाव है।

जो यह महसूस करते हैं कि पाकिस्‍तान से उन्‍हें निकाल दिया गया है, उन्‍हें यह जानना चाहिए कि वे सारे हिंदुस्‍तान के नागरिक हैं, न कि सिर्फ पंजाब, सरहदी सूबे या सिंध के। शर्म यह है कि वे जहाँ कहीं जाए वहाँ के रहने वालों में दूध में शक्‍कर की तरह घुल-मिल जाएँ। उन्‍हें मेहनती बनना और अपने व्‍यवहार में ईमानदार रहना चाहिए। उन्‍हें यह महसूस करना चाहिए कि वे हिंदुस्‍तान की सेवा करने और उसे यश को बढ़ाने के लिए पैदा हुए हैं, न कि उसके नाम पर कालिख पोतने या उसे दुनिया की आँखों में गिराने के लिए। उन्‍हें अपना समय जुआ खेलने, शराब पीने या आपसी लड़ाई-झगड़े में बरबाद नहीं करचा चाहिए। गलती करना चाहिए। गलती करना इंसान का स्‍वाभाव है। लेकिन इंसान को गलतियों से सबक सीखने और दुबारा गलती न करने की ताकत भी दी गई है। अगर शरणार्थी मेरी सलाह मानेंगे, तो वह जहाँ कहीं भी जाएँगे वहाँ फायदेमंद साबित होंगे और हर सूबे के लोग खुले दिल से उनका स्‍वागत करेंगे।

अगर पाकिस्‍तान पूरी तरह मुस्लिम राज्‍य हो जाए और हिंदुस्‍तानी संघ पूरी तरह हिंदू और सिक्‍ख राज्‍य बन जाए और दोनों तरफ अल्‍पमत वालों को कोई हक न दिए जाएँ, तो दोनों राज्‍य बरबाद हो जाएँगे।

क्‍या कायदे आजम ने यह नहीं कहा है कि पाकिस्‍तान मजहबी राज्‍य नहीं है और उसमें धर्म को कानून का रूप नहीं दिया जाएगा? लेकिन बदकिस्‍मती से यह बिलकुल सच है कि इस दावे को हमेशा अमल मे सच साबित नहीं किया जाता। क्‍या हिंदुस्‍तानी संघ मजहबी राज्‍य बनेगा और क्‍या हिंदू धर्म के उसूल गैर-हिंदुओं पर लादे जाएँगे?... ऐसा हुआ तो हिंदुस्‍तानी संघ आशा और उजले भविष्‍य का देश नहीं रह जाएगा। तब वह ऐसा देश नहीं रह जाएगा, जिसकी तरफ सारी एशियाई और अफ्रीकी जातियाँ ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया आशाभरी नजर से देखतती है। दुनिया यूनियन या पाकिस्‍तान के रूप में हिंदुस्‍तान से ओछेपन और धार्मिक पागलपन की उम्‍मीद नहीं करती। वह हिंदुस्‍तान से बड़प्‍पन, भलाई और उदारता की आशा करती है, जिससे सारी दुनिया सबक ले सके और आज के फैले हुए अंधेरे में प्रकाश पा सके।

काश्‍मीर

न तो काश्‍मीर के महाराजा साहब और न हैदराबाद के निजाम को अपनी प्रजा की सम्‍मति के बगैर किसी भी उपनिवेश में शामिल होने का अधिकार है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, यह बात कश्‍मीर के मामले में साफ कर दी गई थी। अगर अकेले महाराजा संघ में शामिल होना चाहते, तो मैं उनके ऐसे काम का कभी समर्थन नहीं कर सकता था। संघ-सरकार काश्‍मीर को थोड़े समय के लिए संघ में शामिल करने पर सिर्फ इसलिए राजी हुई कि महाराजा और काश्‍मीर व जम्‍मू की जनता की नुमाइन्‍दगी करने वाले शेख अब्‍दुल्‍ला दोनों यह बात चाहते थे। शेख अब्‍दुल्‍ला इसलिए सामने आए कि वे काश्‍मीर और जम्‍मू के सिर्फ मुसलमानों के ही नहीं, बल्कि सारी जनता के नुमाइंदे होने का दावा करते हैं।

मैंने यह कानाफूंसी सुनी है कि कश्‍मीर को दो हिस्‍सों में बाँटा जा सकता है। इनमें से जम्‍मू हिंदुओं के हिस्‍से आएगा और काश्‍मीर मुसलमानों के हिस्‍से। मैं ऐसी बँटी हुई वफादारी की और हिंदुस्‍तान की रियासतों के कई हिस्‍सों में बँटने की कल्‍पना नहीं कर सकता। इसलिए मुझे उम्‍मीद है कि सारा हिंदुस्‍तान मसझदारी से काम लेगा और कम-से-कम उन लाखों हिंदुस्‍तानियों के लिए, जो लाचार शरणार्थीं बनने के लिए बाध्‍य हुए हैं, तुरंत ही इस गंदी हालत को टाला जाएगा।

70 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

इंडियन नेशनल कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राष्‍ट्रीय राजनीतिक संस्‍था है। उसने कई अहिंसक लड़ाइयों के बाद आजादी हासिल की है। उसे मरने नहीं दिया जा सकता। उसका खात्‍मा सिर्फ तभी हो सकता है जब राष्‍ट्र का खात्‍मा हो। एक जीविक संस्‍था या तो प्राणी की तरह लगातार बढ़ती रहती है या मर जाती है। कांग्रेस ने राजनीतिक आजादी तो हासिल कर ली है, मगर उसे अभी आर्थिक आजादी, सामाजिक आजादी और नैतिक आजादी हासिल करनी है। ये आजादियाँ चूँकि रचनात्‍मक हैं और भड़कीली नहीं हैं, इसलिए इन्‍हें हासिल करना राजनीतिक आजादी से ज्‍यादा मुश्किल है। जीवन के सारे पहलुओं को अपने में समा लेने वाला रचनात्‍मक काम करोड़ों जनता के सारे अंगों की शक्ति को जगाता है।

कांग्रेस को उसी आजादी का प्रारंभिक और जरूरी हिस्‍सा मिल गया है। लेकिन उसकी सबसे कठिन मंजिल आना अभी बाकी है। प्रजातंत्रीय व्‍यवस्‍था कायम करने के अपने मुश्किल मकसद तक पहुँचने में उसने अनिवार्य रूप से दलबंदी करने वाले गंदे पानी के गड़हों-जैसे मंडल खड़े किए हैं, जिनमें घूंसखोरी और बेईमानी फैली और ऐसी संस्थाएँ पैदा हुई हैं जो नाम की ही लोकप्रिय और प्रजातंत्रिय हैं। इन सब बुराइयों के जंगल से बाहर कैसे निकला जाए?

कांग्रेस को सबसे पहले अपने मेंबरों के उस खास रजिस्‍टर को अलग हटा देना चाहिए, जिसमें मेंबरों की तादाद तभी कभी भी एक करोड़ से आगे नहीं बढ़ी और तब भी जिन्‍हें आसानी से शनाख्‍त नहीं किया जा सकता था। उसके पास ऐसे करोड़ों का एक अज्ञात रजिस्‍टर इतना बड़ा होना चाहिए कि देश मतदाताओं की सूची में जितने पुरुषों और स्त्रियों के नाम हैं वे सब उसमें आ जाएँ। कांग्रेस का काम यह देखना होना चाहिए कि कोई बनावटी नाम उसमें शामिल न हो जाए और कोई जाएज नाम छूट जाए। उसके अपने रजिस्‍टर में उन सेवकों के नाम रहेंगे, जो समय-समय पर खुद को दिया हुआ काम करते रहेंगे।

देश के दुर्भाग्‍य से ऐसे कार्यकर्ता फिलहाल खास तौर पर शहरवालों में से ही लिए जावेंगे, जिनमें से ज्‍यादातर को देहातों के लिए और देहातों में काम करने की जरूरत होगी। मगर इस श्रेणी में ज्‍यादा और ज्‍यादा तादाद में देहाती लोग ही भरती किए जाने चाहिए।

इन सेवकों से यह अपेक्षा रखी जाएगी कि वे अपने-अपने हलकों में कानून के मुताबिक रजिस्‍टर में दर्ज किए गए मतदाताओं के बीच काम करके उन पर प्रभाव डालेंगे और उनकी सेवा करेंगे। कई व्‍यक्ति और पार्टियाँ इन मतदाताओं को अपने पक्ष में करना चाहेंगी। जो सबसे अच्‍छे होंगे उन्‍हीं की जीत होगी। इसके सिवा और कोई दूसरा रास्‍ता नहीं है, जिससे कांग्रेस देश में तेजी से गिरती हुई अपनी पहले की अनुपम स्थिति को फिर से हासिल कर सके। अभी तक कांग्रेस बेजाने देश की सेविका थी। वह खुदाई खिदमतगार थी-भगवान की सेविका है-न तो इससे ज्‍यादा है, न कम। अगर वह सत्‍ता हड़पने के व्‍यर्थ के झगड़ों में पड़ती है, तो एक दिन वह देखेगी कि वह कहीं नहीं है। भगवान को धन्‍यवाद है कि अब वह जनसेवा के क्षेत्र की एकमात्र स्‍वामिनी नहीं रही।

मैंने सिर्फ दूर का दृश्‍य आपके सामने रखा है। अगर मुझे वक्‍त मिला और मेरा स्‍वास्‍थ्‍य ठीक रहा, तो मैं इन कालमों में यह चर्चा करने की उम्‍मीद करता हूँ कि अपने मालिकों-सारे बालिग पुरुषों और स्त्रियों की-नजरों में अपने को ऊँचा उठाने के लिए देशसेवक क्‍या कर सकते हैं।

गांधीजी का आखिरी वसीयतनामा

(कांग्रेस के नए विधान का नीचे दिया जा रहा मसविदा गांधीजी ने 29 जनवरी, 1948 को अपनी मृत्‍यु के एक ही दिन पहले बनाया था। यह उनका अंतिम लेख था। इसलिए इसे उनका आखिरी वसीयतनामा कहा जा सकता हैं)

देश का बँटवारा होते हुए भी, भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस द्वारा मुहैया किए गए साधनों के जरिए हिंदुस्‍तान को आजादी मिल जाने के कारण मौजूदा स्‍वरूप वाली कांग्रेस का काम अब खतम हुआ-यानी प्रचार के वाहन और धारासभा की प्रवृत्ति चलाने तंत्र के नाते उसकी उपयोगिता अब समाप्‍त हो गई है। शहरों और कस्‍बों से भिन्‍न उसके सात लाख गाँवों की दृष्टि से हिंदुस्‍तान की सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है। लोकशाही के मकसद की तरफ हिंदुस्‍तान की प्रगति के दरमियान फौजी सत्‍त पर मुल्‍की सत्‍ता को प्रधानता देने की लड़ाई अनिवार्य है। कांग्रेस की हमें राजनीतिक पार्टियों और सांप्रदायिक संस्‍थाओं के साथ की गंदी होड़ से बचाना चाहिए। इन और ऐसे ही दूसरे कारणों से अखिल भारत कांग्रेस कमेटी नीचे दिए हुए नियमों के मुताबिक अपनी मौजूदा संस्‍था को तोड़ने और लोक-सेवा-संघ के रूप में प्रकट होने का निश्‍चय करे। जरूरत के मुताबिक इन नियमों में फेरफार करने का इस संघ को अधिकार रहेगा।

गाँव वाले या गाँव वालों के जैसी मनोवृत्ति वाले पाँच वयस्‍क पुरुषों या स्त्रियों की बनी हुई हर एक पंचायत एक इकाई बनेगी।

पास-पास की ऐसी हर दो पंचायतों की, उन्‍हीं में से चुने हुए एक नेता की रहनुमाई में, एक काम करने वाली पार्टी बनेगी।

जब ऐसी 100 पंचायतें बन जाएँ, तब पहले दरजे के पचास नेता अपने में से दूसरे दरजे का एक नेता चुनें और इस तरह पहले दरजे का नेता दूसरे दरजे के नेता के मातहत काम करे। दो सौ पंचायतों के ऐसे जोड़े कायम करना तब तक जारी रखा जाएँ, जब कि वे पूरे हिंदुस्‍तान को न ढक लें। और बाद में कायम की गई पंचायतों को हर एक समूह पहले की रिह दूसरे दरजे का नेता चुनता जाए। दूसरे दरजें के नेता सारे हिंदुस्‍तान के लिए सम्मिलित रीजि से काम करें और अपने-अपने प्रदेशों में अलग-अलग काम करें, और वह मुखिया चुनने वाले चाहें तब तक सब समुहों को व्‍यवस्थित करके उनकी रहनुमाई करें।

(प्रांतों या जिलों की अंतिम रचना अभी तय न होने से सेवकों के इन समूह को प्रांतीय या जिला समितियों में बाँटने की कोशिश नहीं की गई है। और, किसी भी वक्‍त बनाए हुए समूहों को सारे हिंदुस्‍तान में काम करने का अधिकार रहेगा। यह याद रखा जाए कि सेवकों के इस समुदाय को अधिकार या सत्‍ता अपने उन स्‍वामियों से यानी सारे हिंदुस्‍तान की प्रजा से मिलती है, जिसकी उन्‍होंने अपनी इच्‍छा से और होशियारी से सेवा की है।)

1. हर एक सेवक अपने हाथ-काते सूत की या चरखा-संघ द्वारा प्रमाणित खादी हमेशा पहनने वाला और नशीली चीजों से दूर रहने वाला होना चाहिए। अगर वह हिंदू है तो उसे अपने में से और अपने परिवार में से हर किस्‍म की छूआ छूत दूर करनी चाहिए और जातियों के बीच एकता के, सब धर्मों के प्रति समभाव के और जाति, धर्म या स्‍त्री-पुरुष के किसी भेदभाव के बिना सबके लिए समान अवसर और समान दरजे के आदर्श में विश्‍वास रखले वाला होना चाहिए।

2. अपने कार्यक्षेत्र में उसे एक गाँव वालें के निजी संसर्ग में रहना चाहिए।

3. गाँव वालों में से वह कार्यकर्ता चुनेगा और उन्‍हें तालीम देगा। इन सबका वह रजिस्‍टर रखेगा।

4. वह अपने रोजाना के काम का रेकार्ड रखेगा।

5. वह गाँवों की इस तरह संगठित करेगा कि वे अपनी खेती और गृह-उद्योगों द्वारा स्‍वयंपूर्ण और स्‍वावलंबी बनें।

6. गाँव वालों को वह सफाई और तंदुरुस्‍ती की तालीम देगा और उनकी बीमारी व रोगो को रोकने के लिए सारे उपाय काम में लाएगा।

7. हिंदुस्‍तानी तालीमी संघ की नीति के मुताबिक नई तालीम के आधार पर वह गाँव वालों पैदा होने से करने तक की सारी शिक्षा का प्रबंध करेगा।

8. जिनके नाम मतदाताओं की सरकारी यादी में ने आ पाए हों, उनके नाम वह उसमें दर्ज करयेगा।

9. जिन्‍होंने मत देने के अधिकार के लिए जरूरी योग्‍यता हासिल न की हो, उन्‍हें वह योग्‍यता हासिल करने के लिए प्रोत्‍साहन देगा।

10. ऊपर बताए हुए और समय-समय पर बढ़ाए हुए उद्देश्‍यों को पूरा करने के लिए, योग्‍य कर्त्‍तव्‍य-पालन करने की दृष्टि से, संघ के द्वारा तैयार किए गए नियमों के अनुसार वह स्‍वयं तालीम लेगा और योग्‍य बनेगा।

संघ नीचे की स्‍वाधीन संस्‍थाओं को मान्‍यता देना :

1. अखिल भारत चरखा-संघ

2. अखिल भारत ग्रामोद्योग संघ

3. हिंदुस्‍तानी तालीम संघ

4. हरिजन-सेवक-संघ

5. गोसेवा-संघ

संघ अपना मकसद पूरा करने के लिए गाँव वालों से और दूसरों से चंदा लगा गरीब। लोगों का पैसा इकटठा करने पर खास जोर दिया जाएगा।

69 शान्ति सेना

कुछ समय पहले मैंने ऐसे स्‍वयंसेवकों की एक सेना बनाने की तजवीज रखी थी, जो दंगो-खासकर सांप्रदायिक दंगों को शांत करने में अपने प्राणों तक की बाजी लगा दें। विचार यह था कि वह सेना पुलिस का ही नहीं बल्कि फौज तक का स्‍थान ले लगी। यह बात बड़ी महत्‍त्‍वाकांक्षा वाली मालूम पड़ती है। शायद यह असंभव भी साबित हो। फिर भी, अगर कांग्रेस को अपनी अहिंसात्‍मक लड़ाई में कामयाबी हासिल करनी हो, तो उस परिस्थितियों का शांतिपूर्वक मुकाबला करने की अपनी शक्ति बढ़ानी ही चाहिए।

इसलिए हमें देखना चाहिए कि जिस शांतिसेना की हमने कल्‍पना की है, उसके सदस्‍यों की क्‍या योग्‍यताएँ होनी चाहिए :

1. शांतिसेना का सदस्‍य पुरुष हो या स्‍त्री, अहिंसा में उसका जीवित विश्‍वास होना चाहिए। यह तभी संभव है जब कि ईश्‍वर में उसका जीवित विश्‍वास हो। अहिंसक व्‍यक्ति तो ईश्‍वर की कृपा और शक्ति के बगैर कुछ कर ही नहीं सकता। इसके बिना उसमें क्रोध, भय और बदले की भावना न रखते हुए मरने का साहस नहीं आएगा। ऐसा साहस तो इस श्रद्धा से आता है कि सबके हृदयों में ईश्‍वर का निवास है, और ईश्‍वर की उपस्थिति में किसी भी भय की जरूरत नहीं। ईश्‍वर की सर्व-व्‍यापकता के ज्ञान का यह भी अर्थ है कि जिन्‍हें विरोधी या गुंडे कहा जा सकता हो उनके प्राणों तक का हम खयाल रखें। यह इरादत दस्‍तन्‍दाजी उस समय मनुष्‍य के क्रोध को शांत करने का एक तरीका है, जब कि उसके अंदर का पशुभाव उस पर हावी हो जाए।

2. शांति के इस दूत में दुनिया के सभी खास-खास धर्मों के प्रति समान श्रद्धा होना जरूरी है। इस प्रकार अगर वह हिंदू हो तो वह हिंदूस्‍तान में प्रचलित अन्‍य धर्मों का आदर करेगा। इसलिए देश में माने जाने वाली विभिन्‍न धर्मों के सामान्‍य सिद्धांतों का उसे ज्ञान होना चाहिए।

3. आम तौर पर शांति का यह काम केवल स्‍थानीय लोगों द्वारा अपनी बस्तियों में हो सकता है।

4. यह काम अकेले या समूहों में हो सकता है। इसलिए किसी को संगी-साथियों के लिए इंतजार करने की जरूरत नहीं है। फिर भी वह स्‍वभावत: अपनी बस्‍ती में से कुछ साथियों को ढूँढ़कर स्‍थानीय सेना का निर्माण करेगा।

5. शांति का यह दूत व्‍यक्तिगत सेवा द्वारा अपनी बस्‍ती या किसी चुने हुए क्षेत्र में लोगों के साथ ऐसा संबंध स्‍थापित करेगा, जिससे जब उसे भद्दी स्थितियों में काम करना पड़े तो उपद्रवियों के लिए वह बिलकुल ऐसा अजनबी न हो, जिस पर वे शक करें या जो उन्‍हें नागवार मालूम पड़े।

6. यह कहने की तो जरूरत ही नहीं कि शांति के लिए काम करने वाले का चरित्र ऐसा होना चाहिए, जिस पर कोई अँगुली न उठा सके और वह अपनी निष्‍पक्षता के लिए मशहूर हो।

7. आम तौर पर दंगों से पहले तूफान आने की चेतावनी मिल जाया करती है। अगर ऐसे आसार दिखाई दें तो शांतिसेना आग भड़क उठाने तक इंतजार न करके तभी से परिस्थिति को संभालने का काम शुरू कर देगी जब से कि उसकी संभावना दिखाई दे।

8. अगर यह आंदोलन बढ़े तो कुछ पूरे समय काम करने वाले कार्यकर्ताओं का इसके लिए रहना अच्‍छा होगा। लेकिन यह बिलकुल जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही। खयाल यह है कि जितने भी अच्‍छे स्‍त्री-पुरुष मिल सकें उतने रखे जाएँ। लेकिन वे तभी मिल सकते हैं जब कि स्‍वयंसेवक ऐसे लोगों में से प्राप्‍त हों, जो जीवन के विविध कार्यों में लगे हुए हो, पर उनके पास इतना अवकाश हो कि अपने इलाकों में रहने वालें लोगों के साथ वे मित्रता के संबंध पैदा कर सकें। तथा उन सब योग्‍यताओं को रखते हों, जो कि शांतिसेना के सदस्‍य में होनी चाहिए।

9. इस सेना के सदस्‍यों की एक खास पोशाक होनी चाहिए, जिससे कालांतर में उन्‍हें बिना किसी कठिनाई के पहचाना जा सके।

ये सिर्फ आम सूचनाएँ हैं। उनके आधार पर हर एक केंद्र अपना विधान बना सकता है।

बड़े-बड़े दलों को चलाने के लिए सजा नहीं, तो सजा का डर होना चाहिए और जरूरत मालूम होने पर सजा दी भी जानी चाहिए। ऐसे हिंसक दल में आदमी के चाल-चलन को नहीं देखा जाता। उसके कद और डीलडौल को ही देखा जाता है। अहिंसक दल में इससे ठीक उलटा होता है। उसमें शरीर की जगह गौण होती है, शरीर ही सब कुछ होता है, यानी चरित्र सब-कुछ होता है। ऐसा चरित्रवान व्‍यक्ति को पहचानना कुश्किल है। इसलिए बड़े-बड़े शांतिदल स्‍थापित नहीं किए जा सकते। वे छोटे ही होंगे। जगह-जगह होंगे, हर गाँव या हर मुहल्‍ले में होंगे। मतलब यह कि जो जाने-पहचाने लोग हैं, उन्‍हीं की टुकड़ियाँ बनेगी। वे मिलकर अपना एक मुखिया चुन लेंगे। सबका दरजा बराबर होगा। जहाँ एक से ज्‍यादा आदमी एक ही तरह का काम करते हैं वहाँ उनमें एकाध ऐसा होना चाहिए, जिसकी आज्ञा के अनुसार सब कोई चल सके। ऐसा न हो तो मेलजोल के साथ, सहयोग से काम, नहीं हो सकता। दो या दो से ज्‍यादा लोग अपनी-अपनी मरजी से काम करें, तो मुमकिन है कि उनके काम की दिशा एक-दूसरे से उलटी हो। इसलिए जहाँ दो या दो से ज्‍यादा दल हों, वहाँ वे हिलमिल कर काम करें तभी काम चल सकता है और उसमें कामयाबी हो सकती है। इस तरह के शांतिदल जगह-जगह हों, तो वे अराम से और आसानी से दंगा-फसाद को रोक सकते हैं। ऐसे दलों को अखाड़ों में दी जाने वाली सभी तरह की तालीम देना जरूरी नहीं। उनमें दी जाने वाली कुछ तालीम लेना जरूरी हो सकता है।

सब शांतिदलों के लिए एक चीज आम यानी सामान्‍य होनी चाहिए। शांतिदल के हर एक सदस्‍य का ईश्‍वर में अटल विश्‍वास होना चाहिए। उसमें यह श्रद्धा होनी चाहिए कि ईश्‍वर ही सच्‍चा साथी है और वही सबका सरजनहार है, कर्ता है। इसके बिना जो शांति सेनाएँ बनेंगी वे मेरे खचाल में बेजान होंगी। ईश्‍वर को आप किसी भी नाम से पुकारें, मगर उसकी शक्ति का उपयोग तो आपको करना ही है। ऐसा आदमी किसी को मारेगा नहीं, बल्कि खुद मरकर मृत्‍यु पर विजय पाएगा और जी जाएगा।

जिस आदमी के लिए यह कानून एक जीती-जागती चीज बन जाएगा, उसको समय के अनुसार बुद्धि भी अपने-आप सूझती रहेगी। फिर भी अपने तजरबे से मैं यहाँ कुछ नियम देता हूँ :

1. सेवक अपने साथ कोई ऐसी हथियार न रखे।

2. वह अपने बदन पर कोई ऐसी निशानी रखे, जिससे फौरन पता चले कि वह शांतिदल का सदस्‍य है।

3. सेवक के पास घायलों वगैरा की सार-संभाल के लिए तुरंत काम देने वाली चीजें रहनी चाहिए। जैसे, पट्टी, कैची, छोटा चाकू, सूई वगैरा।

4. सेवक को ऐसी तालीम मिलनी चाहिए, जिससे वह घायलों को आसानी से उठाकर ले जा सके।

5. जलती आग को बुझाने की, बिना जले या बिना झुलसे आग वाली जगहों में जाने की, ऊपर चढ़ने की और उतरने की कला सेवक में होनी चाहिए।

6. अपने मुहल्‍ले के सब लोगों से उसकी अच्‍छी जान-पहचान होनी चाहिए। यह खुद ही अपने-आप में एक सेवा है।

7. उसे मन-ही-मन रामनाम का बराबर जप करते रहना चाहिए और इसमें मानने वाले दूसरों को भी ऐसा करने के लिए समझाना चाहिए।

कुछ लोग आलस्‍य की वजह से या झूठी आदत की वजह से यह मान बैठते हैं कि ईश्‍वर तो है ही और वह बिना माँगे मदद करता है, फिर उसका नाम रटने से क्‍या फायदा? हम ईश्‍वर की हस्‍ती को कबूल करें या न करें, उससे उसकी हस्‍ती में कोई कमी-बेशी नहीं होती यह सच है। फिर भी उस हस्‍ती का उपयोग तो अभ्‍यासी ही कर पाता है। जब हर भौतिक शास्‍त्र के लिए यह बात सौ फीसदी सच है, तो फिर अध्‍यात्‍मक के लिए तो यह उससे भी ज्‍यादा सच होनी चाहिए। फिर भी हम देखते हैं कि इस मामले में हम तोते की तरह राम-नाम रटते हैं और फल की आशा रखते हैं। सेवक में इस सच्‍चाई को अपने जीवन में सिद्ध करने की ताकत होनी चाहिए।

गुंडों की समस्‍या

गुंडों को दोष देना गलत है। वे तब तक कोई शरारत नहीं कर सकता, जब त‍क कि हम उनके लिए अनुकूल वातावरण नहीं पैदा कर दें। सन् 1921 में बंबई में ब्रिटिश युवराज के आगमन-दिन पर जो कुछ हुआ, वह सब मैंने खुद देखा था। उसका बीज हमने जो बोया था, गुंडों ने तो उसकी फसल काटी। उनके पीछे बल हमारा ही था। ... हमें प्रतिष्ठित वर्ग को दोषारोपण से बचाने की आदत छोड़ देना चाहिए। ... बनियों और ब्राह्मणों को, यदि अहिंसा से नहीं तो हिंसा से सही, अपने रक्षा करना सीख लेना चाहिए। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उन्‍हें अपनी स्त्रियों और अपनी धन-संपत्ति को गुंडों के हवाले करना पड़ेगा। गुंडों की असल में-उन्‍हें हिंदू कहा जाता हो या मुसलमान-एक अलग जाति है।

कायरता का इलाज शारीरिक तालीम में नहीं, बल्कि जो भी खतरे आएँ उनकी मुकाबला बहादुरी के साथ करने में है। जब तक मध्‍यम वर्ग के हिंदू, जो खुद डरपोक होते हैं, ज्‍यादा लाड़-प्‍यार के द्वारा अपने जवान लड़कों-बच्‍चों को नाजुक बनाना और इस तरह अपना डरपोकपन उनमे भरना जारी रखते हैं, तब तक उनमें खतरे को टालने और किसी भी तरह के खतरे से बचने की जो वृत्ति पाई जाती है वह भी जारी रहेगी। इसलिए उन्‍हें अपने लड़को को अकेला छोड़ने का साहस करना चाहिए; उन्‍हें खतरे में पड़ने देना चाहिए और ऐसा करते हुए यदि वे मर जाते हैं तो मर जाने देना चाहिए। शरीर से कमजोर किसी बौन आदमी में भी शेर का दिल हो सकता है। और बहुत हटटे-कटटे जुलू भी अँग्रेज लड़कों सामने कांपने लग जाते हैं। हर एक गाँव को अपनी बस्‍ती में से शेर दिल व्‍यक्ति ढूँढ निकालना चाहिए।

जिन लोगों को गुंडा माना जाता है उनसे हमें जान-पहचान करनी चाहिए। शांति का साधक अपने आस-पास समाज के किसी अंग को ऐसे रहने नहीं देगा। सबके साथ मीठा संबंध बांधेगा, सबकी सेवा करेगा। गुंडे लोग आकाश से तो नहीं उतरते। भूत की तरह जमीन के पेट में से भी नहीं निकलते। उनकी उत्‍पत्ति समाज की कुव्‍यवस्‍था से ही होती है। इसलिए समाज उसके लिए जिम्‍मेदार है। गुंडों को समाज का बीमार या एक प्रकार का दूषित अंग समझना चाहिए। ऐसा मानकर उस बीमारी के कारण ढूँढ़ने चाहिए। कारण हाथ लगने पर बाद में इलाज किया जा सकता है। अब तक तो इस दिशा में प्रयत्‍न तक नहीं किया गया। 'जागे तभी सबेरा' इस सुभाषित के अनुसार यह प्रयत्‍न अब शुरू कर देना चाहिए। इस बारे में अब कोशिश हो गई है। सब अपनी-अपनी जगह कोशिश करें। ऐसी कोशिश की सफलता में ही इस सवाल का जवाब समाया हुआ है।

68 समाचार-पत्र

समाचार-पत्र सेवाभाव से ही चलाने चाहिए। समाचार-पत्र एक जबरदस्‍त शक्ति है; किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव-के-गाँव डुबों देता है और फसल को नष्‍ट कर देता है, उसी प्रकार निरंकुश कलम का प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि ऐसा अंकुश बाहर से भी अधिक विषैली सिद्ध होता है। अंकुश अंदर का ही लाभदायक हो सकता। यदि यह विचारधारा सच हो, तो दुनिया के कितने समाचार-पत्र इस कसौटी पर खरे उतर सकते है? लेकिन निकम्‍मों को बंद कौन करे? किसे निकम्‍मा समझेᣛ? उपयोगी और निकम्‍मे दोनों-भलाई और बुराई की तरह-साथ-साथ ही चलते रहेंगे। उनमें से मनुष्‍य को अपना चुनाव करना होगा।

आधुनिक पत्रकार-कला में गहराई का अभाव, विषय का कोई एक ही पक्ष पेश करना, तथ्‍योंके वर्णन में भूले और अक्‍सर बेईमानी आदि जो दोष आ गए हैं,वे उन ईमानदार व्‍यक्तियों को लगातार गुमराह करते हैं, जो शुद्ध न्‍याय होते देखना चाहते हैं।

मेरे सामने विविध पत्रों के ऐसे उद्धारण हैं, जिनमें बहुत-सी अपात्तिजनक बातें हैं। उनमें सांप्रदायिक भावनाओं को उभाड़ने की कोशिश है, हकीकतों को अत्‍यंत गलत ढँग से पेश किया गया है और हत्‍या की हद तक राजनीतिक हिंसा को उत्‍तेजना दी गई है। सरकार चाहे तो ऐसे लेखों के खिलाफ मुकदमें चला सकती है या उन्‍हें रोकने के लिए दमनकारी कानून पास कर सकते है। लेकिन इस उपायों से अभीष्‍ट लक्ष्‍य की सिद्धि या तो होती नहीं या बहुत अस्‍थायी तौर पर होती है। और उन लखकों का मानस-परिवर्तनो इनसे कभी नहीं होता। कारण, जब उन्‍हें अपनी बात के प्रचार के लिए समाचार-पत्रों का सबके लिए खुला हुआ स्‍थान नहीं मिलता, तो वे अक्‍सर गुप्‍त प्रचार का आश्रय लेते हैं।

इस बुराई का सच्‍चा इलाज तो ऐसे स्‍वस्‍थ लोकमत का निर्माण है, जो इस किस्‍म के जहरीले पत्रों को आश्रय देने से इनकार कर दे। हमारा पत्रकारों का अपना संघ है। इस संघ को अपना एक ऐसा विभाग क्‍यों नहीं खोलना चाहिए, जो सब पत्रों को ध्‍यान से पढ़े, आपत्तिजनक लेखों को ढूँढ़ निकाले और उन्‍हें उन पत्रों के संपादकों की नजर में लाएᣛ? इस विभाग का कार्य अपराधी पत्रों से संपर्क स्‍थापित करने तक और जहाँ अभीष्‍ट सुधार इस संपर्क से सिद्ध न किया जा सके, वहाँ उन आपत्तिजन लेखों की सार्वजनिक आलोचना करने तक सीमित रहे। समाचार-पत्रों की स्‍वतंत्रता ऐसा कीमती अधिकार है, जिसे कोई भी देश छोड़ना नहीं चाहेगा। लेकिन इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए मामूली प्रकार की कानूनी रोक के सिवा कोई दूसरी कानूनी रोक न हो, तो मैंने जैसी आंतरिक रोक सुझाई है वैसी आंतरिक रोक असंभव नहीं होनी चाहिए। और वह लगाई जाए तब उसका विरोध नहीं होना चाहिए।

मैं अवश्‍य ही यह मानता हूँ कि अनी‍ति से भरे हुए विज्ञापनों की मदद से समाचार-पत्रों को चलाना उचित नहीं है। में यह भी मानता हूँ कि विज्ञापन यदि लेने ही हों तो उन पर समाचार-पत्रों के मालिकों और संपादकों की तरफ से बड़ी सख्‍त चौकीदारी होना आवश्‍यक है और केवल शुद्ध और पवित्र विज्ञापन ही लिए जाने चाहिए। ... आज अच्‍छे प्रतिष्ठिता गिने जाने वाले समाचार-पत्रों और मासिकों पर भी यह दुषित विज्ञापनों का अनिष्‍ट हावी हो रहा है। यह अनिष्‍ट तो सामाचा-पत्रों के मालिकों और संपादकों की विवेक-बुद्धि को शुद्ध करके ही दूर किया जा सकता है। मेरे जैसे नौसिखुवे संपादक के प्रभाव से यह शुद्धि नहीं हो सकती। लेकिन जब उनकी विवेक-बुद्धि इस बढ़ने वाला और राष्‍ट्र के प्रति जाग्रत होगी, अथवा जब राष्‍ट्र की शुद्धि प्रतिनिधित्‍व करने वाला और राष्‍ट्र की नैतिकता पर सदा ध्‍यान रखने वाला राज्‍यतंत्र उस विवेक-बुद्धि को जाग्रत करेगा तभी हो सकेगी।

मेरा आग्रह है कि विज्ञापनों में सत्‍य का यथेष्‍ट ध्‍यान रखा जाना चाहिए। हमारे लोगों की एक आदत यह है कि वे पुस्‍तक या अखबर में छपे हुए शब्‍दों को शास्‍त्र-वचनों की तरह सत्‍य मान लेते हैं। इसलिए विज्ञापनों की सामग्री तैयार करने में अत्‍यंत सावधानी बरतने की जरूरत है। झूठी बातें बहुत खतरनाक होती है।

67 भारतीय गवर्नर

1. हिंदुस्‍तानी गवर्नर को चाहिए कि वह खुद पूरे संयम का पालन करे और अपने आस-पास संयम का वातावरण खड़ा करे। इस‍के बिना शराबबंदी के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

2. उसे अपने में और अपने आस-पास हाथ-कताई और हाथ-बुनाई का वातावरण पैदा करना चाहिए, जो हिंदुस्‍तान के करोड़ों गूंगों के साथ उसकी एकता को प्रकट निशानी हो,'मेहनत करके रोटी कमाने'की जरूरत का और संगठित हिंसा के खिलाफ-जिस पर आज का समाज टिका हुआ मालूम होता है संगठित अहिंसा का जीत-जागता प्रतीक हो।

3. अगर गवर्नर को अच्‍छी तरह काम करना है, तो उसे लोगों की निगाहों से बचे हुए,फिर भी सबकी पहुँच के लायक, छोटे से मकान में रहना चाहिए। ब्रिटिश गवर्नर स्‍वभाव से ही ब्रिटिश ताकत को दिखाता था। उसके लिए और उसके लोगों के लिए सुरक्षित महल बनाया गया था-ऐसा महल जिसमें वह और उसके साम्राज्‍य को टिकाए रखने वाले उसके सेवक रह सकें। हिंदुस्‍तानी गवर्नन राजा-नवाबों और दुनिया के राजदूतों का स्‍वागत करने के लिए थोड़ी शान-शौकत वाली इमारतें रख सकते हैं। गवर्नर के मेहमान बनने वाले लोगों को उसके व्‍यक्तित्‍व और आस-पास के वातावरण से'ईवन अण्‍टु दिस लास्‍ट'(सर्वोदया) सब के साथ समान बरताव-की सच्‍ची शिक्षा मिलनी चाहिए। उसके लिए देशी या विदेशी महंगे फर्नीचर की जरूरत नहीं।'सादा जीवन और ऊँचे विचार'उसका आदर्श होना चाहिए। यह आदर्श सिर्फ उसके दरवाजे की ही शोभा न बढ़ाए, बल्कि उसके रोज के जीवन में भी दिखाई दे।

4. उसके लिए न तो किसी रूप में छुआछूत हो सकती है ओर न जाति, धर्म या रंग का भेद। हिंदुस्‍तान का नागरिक होने के नाते उसे सारी दुनिया का नागरिक होना चाहिए। हम पढ़ते हैं कि खलीफा उमर इसी तरह सादगी से रहते थे, हालाँकि उनके कदमों पर लाखों-करोंड़ों की दौलत लोटती रहती थी। उसी तरह पुराने जमाने में राजा जनक रहते थे। इसी सादगी से ईटन के मुख्‍याधिकारी, जैसा कि मैंने उन्‍हें देखा था, अपने भवन में ब्रिटिश द्वीपों के लॉर्ड और नवाबों के लड़कों के बीच रहा करते थे। तब क्‍या करोड़ों भूखो के देश हिंदुस्‍तान के गवर्नर इतनी सादगी से नहीं रहेंगेᣛ?

5. व‍ह जिस प्रांत का गवर्नर होगा, उसकी भाषा और हिंदुस्‍तानी बोलेगा, जो हिंदुस्‍तान की राष्‍ट्रभाषा है और नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है। वह न तो संस्‍कृत शब्‍दों से भरी हुई हिंदी है ओर न फारसी शब्‍दों से लदी हुई उर्दू। हिंदुस्‍तानी दरअसल वह भाषा है, जिसे विंध्याचल के उत्‍तर में करोड़ों लोग बोलते हैं।

हिंदुस्‍तानी गवर्नर में जो-जो गुण होने चाहिए, उनकी यह पूरी सूची नहीं है। यह तो सिर्फ मिसाल के तौर पर दी गई है।

66 अल्पसंख्यको की समस्याएँ

अगर हिंदू लोग विविध जातियों के बीच एकता चाहते हैं, तो उनमें अल्‍पसंख्‍यक जातियों का विश्‍वास करने की हिम्‍मत होनी चाहिए। किसी भी दूसरी बुनियाद पर आधारित मेल सच्‍चा मेल नहीं होगा। करोड़ों सामान्‍य जन न तो विधान-सभा के सदस्‍य होना चाहते हैं और न म्‍युनिसिपल कौसिलर बनना चाहते हैं। और यदि हम सत्‍याग्रह का सही उपयोग करना सी, गए है, तो हमें जानना चाहिए कि उसका उपयोग किसी भी अन्‍यायी शासक के खिलाफ-वह हिंदू, मुसलमान या अन्‍य किसी भी कौम का हो-किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। इसी तरह न्‍यायी शासक या प्रतिनिधि हमेशा और समान रूप से अच्‍छा होता है, फिर वह हिंदू हो या मुसलमान। हमें सांप्रदायिक भावना छोड़नी चाहिए। इसलिए इस प्रयत्‍न में बहुसंख्‍यक समाज को पहल करके अल्‍पसंख्‍यक जातियों में अपनी ईमानदारी के विषय में विश्‍वास पैदा करना चाहिए। मेल और समझौता तभी हो सकता है जब कि ज्‍यादा बलवान पक्ष दूसरे पक्ष के जवाब की राह देखे बिना सहीं दिशा में बढ़ना शुरू कर दे।

जहाँ तक सरकारी महकमों में नौकरियों का सवाल है, मेरी राय है कि यदि हम सांप्रदायिक भावना को यहाँ भी दाखिल करेंगे,तो यह चीज सुशासन के लिए घातक सिद्ध होगी। शासन सुचाररु रूप से चलें, इसके लिए यह जरूरी है कि वह सबसे योग्‍य आदमियों के हाथ में रहे। उसमें किसी तरह का पक्षपात तो होना ही नहीं चाहिए। अगर हमें पाँच इंजीनियरों की जरूरत हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम एक जाति से एक-एक लें; हमें तो पाँच सबसे सुयोग्‍य इंजीनियर चुन लेने चाहिए, भले वे सब मुसलमान हो, या पारसी हों। सबसे निचले दरजे की जगहें, यदि जरूरी मालूम हों तो, परीक्षा के जरिए भरी जाएँ और यह परीक्षा किसी ऐसी समिति की निगरानी में हो जिसमें विविध जातियों के लोग हों। लेकिन नौकरियों का यह बँटवारा विविध जातियों की संख्‍या के अनुपात में नही होना चाहिए। राष्‍ट्रीय सरकार बनेगी तब शिक्षा में पिछड़ी हुई जातियों की शिक्षा के मामले में जरूर दूसरों की अपेक्षा विशेष सुविधाएँ पाने का अधिकार होगा। ऐसी व्‍यवस्‍था करना कठिन नहीं होगा। लेकिन जो लोग देश के शासन-तंत्र में बड़े-बड़े पदों को पाने की आकांक्षा रखते हैं, उन्‍हें उसके लिए जरूरी परीक्षा अवश्‍य पास करनी चाहिए।

स्‍वतंत्र भारत सांप्रदायिक प्रतिलिनित्‍व की प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं दे सकता। लेकिन यदि अल्‍पसंख्‍यकों पर जोर-जबरदस्‍ती नहीं करना है, तो उसे सब जातियों को पूरा संतोष देना पड़ेगा।

हिंदुस्‍तान उन सब लोगों का है, जो यहाँ पैदा हुए है और पले हैं और दूसरे किसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों, बेनी इजरायलों, हिंदुस्‍तानी ईसाईयों, मुसलमानों और दीगर गैर-हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्‍तान में राज्‍य हिंदुओं का नहीं,बल्कि हिंदुस्‍तानियों का होगा; और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्‍ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा। मैं एक ऐसे मिश्र बहुमत की कल्‍पना कर सकता हूँ, जो हिंदुओं को अल्‍पमत बना दे। स्‍वतंत्र हिंदुस्‍तान में लोग अपनी सेवा और योग्‍य के आधार पर ही चुने जाएँगे। धर्म का निजी विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्‍थान नहीं होना चाहिए। विदेश हुकूमत की वजह से देश में जो अस्‍वाभाविक परिस्थिति पाई जा‍ती है, उसी की बदौलत हमारे यहाँ धर्म के अनुसार इतने बनावटी फिरके बन गए हैं। जब इस देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी, तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद ही हँसेंगे।

अपने धर्म पर मेरा अटूट विश्‍वास है। मैं उसके लिए अपने अप्राण दे सकता हूँ। लेकिन वह मेरा निजी मामला है। राज्‍य को उससे कुछ लेना-देना नहीं है। राज्‍य हमारे लौकिक कल्‍याण की-स्‍वास्‍थ्‍य, आवागमन, विदेशों से संबंध, करेंसी (मुद्रा) आदि की देखभाल करेगा, लेकिन हमारे या तुम्‍हारे धर्म की नहीं। धर्म हर एक का निजी मामला है।

एग्‍लों-इंडियन समाज और विदेशी लोग

सब विदेशियों को यहाँ रहने और बसने की पूरी आजादी है, बशर्ते कि वे अपने को इस देश की जनता से अभिन्‍न समझें। जो विदेशी यहाँ अपने अधिकारों के लिए संरक्षण चाहते हो, उन्‍हें भारत आश्रय नहीं दे सकता। अधिकारों के लिए संरक्षण माँगने का अर्थ यह होगा कि वे यहाँ ऊँचे दरजे के आदमियों की तरह रहना चाहते हैं। लेकिन उन्‍हें ऐसा नहीं करने दिया जा सकता, क्‍योंकि उससे संघर्ष पैदा होगा।

अगर एक यूरोपियन ऐसा कर सकता है, तो एंग्‍लो-इंडियन और वे देसरे लोग तो और भी ऐसा कर सकते हैं,जिन्‍होने यूरोपियन आचार-व्‍यवहार और रीति-रिवाज महज इसलिए अपनाए हैं कि विदेशी सरकार से अच्‍छे व्‍यवहार की माँग करने वाले यूरोपियनों में उनकी गिनती हो सके। अगर ऐसा लोग यह उम्‍मीद रखें कि अब तक जो खास सहूलियतें उन्‍हें मिलती रही हैं वैसी आगे भी मिलती रहें, तो उन्‍हें परेशानी ही होगी। उन्‍हें तो इस बात के लिए अपने को धन्‍य समझना चाहिए कि जिन खास सहूलियतों को भोगने का उन्‍हें किसी भी तर्कसम्‍मत कानून से कोई हक नहीं था, और जो उनकी इज्‍जत को बटटा लगाने वाली थी, उनका बोझ उनके सिर से उतर जाएगा।

एंग्‍लो-इंडियन के राजनीतिक अधिकारों को कोई खतरा नहीं है। उसे अपनी सामाजिक स्थिति की चिंता है, जो कि फिलहाल अस्तित्‍व में ही नहीं है। उसे एक ओर तो इस बात पर बहुत गुस्‍सा आता है कि उसकी माँ या उसके पिता भारतीय थे और दूसरी ओर युरोपियन लोग उसे अपने समाज में स्‍वीकार नहीं करते। इस तरह उसकी स्थिति कुएँ और खाई के बीच खड़े रहने जैसी है। मुझे उससे अक्‍सर मिलने का मौका आता है। यूरापियन की तरह रहने ओर यूरोपियन दिखने की कोशिश में उसे अपने साधनों सीमा से ज्‍यादा खर्चीला जीवन बिताना पड़ाता है और उसका नतीजा यह है कि वह नैतिक और आर्थिक दृष्टि से बिलकुल कमजोर हो गया है। मैंने उसे समझाया है कि उसे चुनाव करे लेना चाहिए और अपना भाग्‍य भारत की विशाल जनता के साथ जोड़ देना चाहिए। अगर इन लोगों में इस अत्‍यंत सीधी और स्‍वाभाविक स्थिति को समझने और स्‍वीकार करने का साहस और दूरदर्शिता होगी, तो वे न सिर्फ अपना उद्धार कर सकेंगे। बेजुबान एंग्‍लो-इंडियन के सामने सबसे बड़ा सवाल अपनी सामाजिक स्थिति का निर्णय करने का है। ज्‍यों ही वह अपने को भारतीय समझने और मानने लगेगा और एक भारतीय की ही तरह रहने लगेगा, त्‍यों ही वह महसूस करेगा कि वह सुरक्षित है।

65 प्रांतों का पुनर्गठन

कांग्रेस ने 20 साल से यह तय कर लिया था कि देश में जितनी बड़ी-बड़ी भाषाएँ हैं उतने प्रांत होने चाहिए। कांग्रेस ने यह भी कहा था कि हुकूमत हमारे हाथ में आते ही ऐसे प्रांत बनाए जाएँगे। वैसे तो आज भी 9 या 10 प्रांत बने हुए हैं और वे एक केंद्र के अधीन हैं। इसी तरह से अगर नए प्रांत बनें और दिल्‍ली को मातहत रहें, तब तो कोई हर्ज की बात नहीं। लेकिन वे सब अलग-अलग होकर आजाद हो जाएँ और एक केंद्र के अधीन न रहें, तो फिर वह एक निकम्‍मी बात हो जाती है। अलग-अलग प्रांत बनने के बाद वे यह न समझ लें कि बंबई का महाराष्‍ट्र का कर्नाटक से कोई संबंध नहीं और कर्नाटक का आंध्र से कोई संबंध नहीं। तब तो हमारा काम बिगड़ जाता है। इसलिए सब आपस में एक-दूसरे को भाई-भाई समझें। इसके अलावा, भाषावार प्रांत बन जाते है, तो प्रांतीय भाषाओं की भी तरक्‍की होती है। वहाँ के लोगों को हिंदुस्‍तानी में तालीम देना वाहियात बात है और अँग्रेजी में देना तो और भी वाहियात है।

अब सीमाबंदी-कमीशनों की बात तो हमें भूल जानी चाहिए। लोग आपस में मिल-जुलकर नक्‍शे बना लें और उन्‍हें पंडित जवाहलाल जी के सामने रख दें। वे हुकूमत की तरफ से उन पर दस्‍तक दे देंगे। वास्‍तव में इसी का नाम तो आजादी है। अगर आज केंद्रीय सरकार को सीमाएँ तय करने के लिए कहें, तब तो काम बहुत कठिन हो जाएगा।

मुझे यह कबूल है कि जो उचित है उसे अब करना चाहिए। बगैर कारण के रुकना ठीक नहीं। इससे नुकसान भी हो सकता है। पाप के साथ हमारा कोई सरोकार नहीं हो सकता।

फिर भी भाषावार सूबों के विभाग में देर होती है उसका कारण है। उसका कारण आज का बिगड़ा हुआ वायुमंडल है। आज हर एक आदमी अपना ही देखता है। मुल्‍क की ओर जाने वाले, उसका भला सोचने वाले लोग हैं जरूर, लेकिन उनकी सुने कौन? अपनी ओर खीचने वाले लोग शोर मचाते हैं, इसलिए उनकी बात सब सुनते हैं। दुनिया ऐसी ही है नᣛ?

आज भाषावार सूबों का विभाग करने में झगड़े का डर रहता है। उड़िसा भाषा को ही लीजिए। उड़ीसा अलग सूबा बन गया है, फिर भी कुछ-न-कुछ खीचतानी रही ही है। एक ओर आंध्र, दूसरी ओर बिहार और तीसी ओर बंगाल है। कांग्रेस ने तो भषावार विभाग सन् 1920 में किया। बाकानून विभाग तो उड़िसा बोलने वाले सूबे का ही हुआ है। मद्रास के चार विभाग कैसे हों? बंबई के कैसे हो? आपस में मिलकर सब सूबे आवें और अपनी और बना लें, तो बाकानून विभाग आज हो बन सकते है। आज हुकूमत क्‍या यह बोझ उठा सकती है? कांग्रेस की जो ताकत 1920 में थी वह क्‍या आज हैB? आज क्‍या उसकी चलती हैᣛ?

आज तो दूसरे हकदार भील पैदा हो गए हैं। ऐसे मौके पर हिंदुस्‍तान बेहाल-सा लगता है। आज तो संप (मेल) के बदले मौत है। जब कौमी झगड़े बंद होंगे तक हम समझ सकेंगे कि सब ठीक हुआ है। ऐसी हालत में भाषावार विभाग लोग आपस में मिलक कर लें, तो कानून आसान होगा अन्‍यथा शायद नहीं।

ऐसा लगता है कि अगर यूनियन के सारे सूबों को हर दिशा में एक-सी तरक्‍की करनी हो, तो हर सूबे की नौकरियाँ, पूरे हिंदुस्‍तान की तरक्‍की के खयाल से ज्‍यादातर वहाँ के रहने वालों को ही दी जानी चाहिए। अगर हिंदुस्‍तान को दुनिया के सामने स्‍वाभिमान से सिर ऊँचा रखना है, तो किसी सूबे और किसी जाति या तबके को पिछड़ा हुआ नहीं रखा जा सकता। लेकिन अपने उन हथियारों के बल पर हिंदुस्‍तान ऐसा नहीं कर सकता, जिनसे दुनिया ऊब चुकी है। उसे अपने हर नागरिक के जीवन में और हाल में ही मेरे द्वारा बताए गए समाजवाद में प्रकट होने वाली अपनी कुदरती तहजीव या संस्‍कृति के द्वारा ही चमकना चाहिए। इसका यह मतलब है कि अपनी योजनाओं या उसूलों को जनप्रिय बनाने के लिए किसी भी तरह की ताकत या दबाव को काम में न लिया जाए। जो चीज सचमुच जनप्रिय हैं उसे सबसे मनवाने के लिए जनता की राय के सिवा दूसरी किसी ताकत की शायद ही जरूरत हो। इसलिए बिहार, उड़ीसा और आसाम में कुछ लोगों द्वारा की जाने वाली हिंसा के जो बुरे दृश्‍य देखे गए, वे कभी नहीं दिखाई देने चाहिए थे। अगर कोई आदमी नियम के खिलाफ काम करता है या दूसरे सूबों के लोग किसी सूबे में आकर वहाँ के लोगो के हम मारते हैं, तो उन्‍हें सजा देने और व्‍यवस्‍था कायम रखने के लिए जनप्रिय सरकारें सूबों में राज्‍य कर रही है। सूबों की सरकारों का यह फर्ज है कि वे दूसरे सूबों से अपने यहाँ आने वाले सब लोगों की पूरी-पूरी हिफाजत करें। 'जिस चीज को तुम अपनी समझते हो, उसका ऐसा इस्‍तेमाल करो कि दूसरे को नुकसान न पहुँचे' यह समानता का जाना-पहचाना उसूल है। यह नैतिक बरताव भी सुंदर नियम है। आज की हालत में यह कितना उचित मालूम होता है।

'रोम में रोमनों की तरह रहो, यह कहावत जहाँ तक रोमन बुराईयों से दूर रहती है वहाँ तक समझदारी से भरी फायदा पहुँचाने वाली कहावत है। एक दूसरे के साथ घुल-मिलकर तरक्‍की करने के काम में यह ध्‍यान रखना चाहिए कि बुराईयों को छोड़ दिया जाए और अच्‍छाइयों को पचा लिया जाए। बंगाल में एक गुजराती के नाते मुझे बंगाल की सारी अच्‍छाइयों को तुरंत पचा लेना चाहिए और उसकी बुराई को कभी छूना भी नहीं चाहिए। मुझें हमेशा बंगाल की सेवा करनी चाहिए; अपने फायदे के लिए उसे चूसना नहीं चाहिए। दूसरों से बिलकुल अलग रहने वाली हमारी प्रांतीयता जिंदगी को बरबाद करने वाली चीज है। मेरी कल्‍पना के सूबे की हद सी प्रांतीयता की हदों तक फैली हुई होगी, ताकि अंत में उसकी हद सारे विश्‍व की हदों तक फैली जाए। वर्ना वह खतम हो जाएगा।

मेरी राए में एक हिंदुस्‍तानी का नागरिक है और देश के हर हिस्‍से में उसे बराबर का हक हासिल है। इस‍लिए एक बंगाली को बिहार में एक बिहारी के नाते सभी हक हासिल है। मगर मैं इस बार पर जोर देना चाहता हूँ कि उस बंगाली को बिहारियों के साथ पूरी तरह घुल-मिल जाना चाहिए। उसे अपना मतलब साधने के लिए बिहारियों का उपयोग करने का गुनाह नहीं करना चाहिए, या बिहारियों के बीच अपने-आपको अजनबी समझना या उसने अजनबी-जैसा बरताव नहीं करना चाहिए। ... सारे हक उन फर्जों से निकलते है, जिन्‍हें हम पहले से पूरी तरह अदा कर चुकते हैं। एक बात पर मैं जरूर जोर दूँगा कि अगर आपको किसी तरह आगे बढ़ना है, तो हिंदुस्‍तान के दोनों उपनिवेशों में जोर-जबरदस्‍ती से अपने हक आजमाने की बात को पूरी तरह छोड़ देना होगा। इस तरह न तो बंगाली और न बिहारी तलवार के जोर से अपने हक आजमा सकते और न तलवार के जारे से सीमा-कमीशन के फैसले को बदला जा सकता। लोकशाही वाले आजाद हिंदुस्‍तान में सबसे पहले आपको यही सबक सीखना होगा। ... आजादी का यह मतलब कभी नहीं होता कि आपकी अपनी मर्जी से चाहे जो करने की छुट्टी मिल गई। आजादी का मतलब यह है कि आप बिना किसी बाहरी दबाव के अपने ऊपर काबू रखें और अनुशासन पालें; और जारी-खुशी से उन कानूनों पर अमल करें जिन्‍हें पूरे हिंदुस्‍तान ने अपने चुने हुए नुमाइंदों के जरिए बनाया है। प्रजातंत्र या लोकशाही में एकमात्र ताकत लोकमत की होती है। खुले या छिपे तौर पर जोर-जबरदस्‍ती का इस्‍तेमाल करने से सत्‍याग्रह, सिविल नाफरमानी और उपवासों का कोई सं‍बंध नहीं है। मगर लोकशाही में इनके इस्‍तेमाल पर भी काबू रखने की जरूरत है। जब सरकारें जम रही हों ओर सांप्रदायिक दंगों का रोग एक सूबे से देसरे सूबे में फैल रहा हो, तब तो इनके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

द्राविड़िस्‍तान?

इसके बाद गांधी जी ने द्राविड़िस्‍तान के आंदोलन का जिक्र किया। यह दक्षिण हिंदुस्‍तान का वह हिस्‍सा है, जहाँ के लोग तेलगू, तामिल, मलयालम और कन्‍नड़ चार द्राविड़ी भाषाये बोलते हैं। उन्‍होंने कहा, हिंदुस्‍तान का इन चार भाषाओं को बोलने वाला हिस्‍सा बाकी के हिंदुस्‍तान से अलग क्‍यों किया जाए? क्‍या ज्‍यादातर संस्‍कृत से निकलने के कारण ही ये भाषाएँ उन्‍नत नहीं हुई हैं? मैंने इन चारों सूबों का दौरा किया है। मुझे उनमें और दूसरे सूबों में कोई फर्क नहीं मालूम हुआ। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था कि विंध्याचल के दक्षिण में रहने वाले अनार्य और उसके उत्‍तर में रहने वाले आर्य हैं। पुराने जमाने में हम कोई भी रहे हों, आज तो हम इतने घुल-मिल गए हैं कि हिंदुस्‍तान के दो भाग हो जाने पर भी हम कश्‍मीर से कन्‍याकुमारी तक एक ही राष्‍ट्र हैं। देश के और ज्‍यादा टुकड़े करना मूर्खता होगी। अगर मौजूदा बँटवारे के बाद भी हम देश के छोटे-छोटे टुकड़े करते रहे, तो अनगिनत स्‍वतंत्र सार्वभौम राज्‍य बन जाएँगे, जो हिंदुस्‍तान और दुनिया के लिए बेकार साबित होंगे। दुनिया को हम अपने बारे में यह कहने का मौका न दें कि हिंदुस्‍तानी सिर्फ गुलामी में ही एक सियासी हुकूमत के मातहम रह सकते थे, लेकिन आजाद होकर वे जंगलियों की तरह जितने चाहें उतने गिरोहों में बँट जाएँगे और हर गिरोह अपने अलग रास्‍ते जाएगा। या, क्‍या हिंदुस्‍तानी ऐसे निरंकूश राज्‍य के गुलाम बनकर रहेंगे, जिसके पास उन्‍हें गुलामी में जकड़ने लायक बड़ी भारी फौज होगीᣛ?

मैं सब हिंदुस्‍तानियों और खासकर दक्षिण के लोगों से अपील करता हूँ कि वे अँग्रेजी भाषा की गुलामी को छोड़ दें, जो अंतरराष्‍ट्रीय व्‍यापार और राजनीति के लिए ही अच्‍छी भाषा है। वह हिंदुस्‍तान के करोड़ों लोगों की भाषा कभी नहीं बन सकती। अँग्रेजों का एक या डेढ़ सदी का राज्‍य भी हिंदुस्‍तानी जन-समुद्र के कुछ लाख से ज्‍यादा लोगों को अँग्रेजी बोलने वाले नहीं बना सका। अगर आप जन-गणन के आंकड़े देखें तो आपको पता चलेगा कि कई लाख आदमी हिंदी और उर्दू की मिलावट वाली और नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाने वाली हिंदुस्‍तानी बोलते हैं। संस्‍कृत के शब्‍दों से लदी हुई हिंदी या फारसी के शब्‍दों से भरी हुई उर्दू बहुत कम लोग बोलते हैं। मुझसे दक्षिण के लोगों ने पूछा है कि क्‍या हम अपने सूबे की लिपि में हिंदुस्‍तानी सीख सकते हैं? मुझे तो कोई एतराज नहीं हे। सच पूछा जाए तो हिंदुस्‍तानी प्रचार-सभा ने दक्षिण के लड़कों को उनके सूबे की लिपि में हिंदुस्‍तानी सीखने की इजाजत दे दी है। बाद में वे नागरी और उर्दू लिपि सीखते हैं, ताकि वे आसानी से उत्‍तर हिंदुस्‍तान के साहित्‍य की जानकारी हासिल कर सकें। देश-प्रेम का इतना तो उनसे तकाजा है ही। आज दक्षिण के लोगों के संकुचित प्रांतीय के शिकार होने का भारी खतरा है। अगर सभी संकुचित बन जाएँगे, तो हमारा प्‍यार हिंदुस्‍तान कहाँ रह जाएगा? मैं खुले तौर पर यह मंजूर करता हूँ कि अगर दक्षिण के लोगों के लिए हिंदुस्‍तानी का न सीखना गलत चीज है, जैसा कि सचमुच है, तो उत्‍तर के लोगों के लिए दक्षिण की उत्‍तम साहित्‍यवाली चार भाषाओं में से एक या अधिक भाषाएँ न सीखना भी उतना ही गलत है। मैंने दक्षिण के सदस्‍यों से अपील की है कि वे हिंदुस्‍तानियों की सभा में अँग्रेजी भाषा की कभी माँग न करने की प्रतिज्ञा कर लें। तभी वे जल्‍दी हिंदुस्‍तानी सीख सकेंगे। हमें याद रखना चाहिए कि आजाद हिंदुस्‍तान तभी एक बनकर काम कर सकेगा, जब वह नैतिक शासन को मानेगा। गुलामी के खिलाफ लड़ने वाली संस्‍था के नाते कांग्रेस अपनी नैतिक ताकत से ही आज तक संगठित रह सकी है। लेकिन जब उसने राजनीतिक आजादी करीब-करीब ले ली है, तब क्‍या उसका संगठन खतम हो जाएगा-पह बिखर जाएगी।

64 शासन-संबंधी समस्याएँ

मुझे डर है कि अगले कई वर्षों तक दबी हूई और गिरी हुई जनता को दु:ख और गरीबी के कीचड़ से उठाने के लिए आवश्‍यक कानून-कायदे बनाने का कार्य करते रहना होगा। इस कीचड़ में उसे एक हद तक तो पूँजीपतियों, जमींदरों और तथा‍कथित उच्‍च वर्गों ने और बाद में ब्रिटिश शासकों ने फंसाया है; अलबत्‍ता, ब्रिटिश शासकों ने अपना यह काम बहुत वैज्ञानिक रीति से किया है। अगर हमें इस जनता का उसकी इस दुरवस्‍था से उद्धार करना है, तो अपना घर सुव्‍यवस्थित करने की दृष्टि से भारत की राष्‍ट्रीय सरकार का यह कर्त्‍तव्‍य होगा कि वह लगातार उसको ही तरजीह देती रहे और जिन बोझों के भार से उसकी कमद टूटी जा रही है उनसे उसे मुक्‍त भी कर दे। और यदि जमीदारों को, अमीरों को और उन लोगों को जो आज विशेषाधिकार भोग रहे हैं-वे यूरोपीय हों या भारतीय-ऐसा मालूम हो कि उनके साथ निष्‍पक्षता का व्‍यवहार नहीं हो रहा है, तो मैं उनसे सहानुभूति रखूँगा। लेकिन मैं उनकी कोई सहायता नहीं कर सकूँगा । क्‍योंकि मैं तो इस प्रयत्‍न में उनकी मदद चाहूँगा और सच तो यह है कि उनकी मदद मे बिना इस जनता का उद्धार करना संभव ही नहीं होगा।

इसलिए धन या अधिकारों के रूप में जिनके पास कोई संपत्ति है उनके तथा जिनके पास ऐसी कोई संपत्ति नहीं है उन गरीबों के बीच संघर्ष तो अवश्‍य होगा; और यदि इस संघर्ष का भय रखा जाता हो और सब वर्ग मिलकर करोड़ो बेजुबान लोगों के सिरपर पिस्‍तौल तानकर ऐसा कहना चाहते हों कि तुम लोगों को तुम्‍हारी अपनी सरकार तब तक नहीं मिलेगी, जब तक कि तुम इस बात का आश्‍वासन नहीं देते कि हमारी संपत्ति और हमारे अधिकारों को कोई आँच नहीं आएगी, तब तो मुझे लगता है कि राष्‍ट्रीय सरकार का निर्माण है।

गवर्नर

...इसके बावजूद कि लोगों की तिजोरी की कौड़ी-कौड़ी को बचाना मुझे बहुत पसंद है, पैसे की बचत के लिए प्रांतीय गवर्नरों की संस्‍था को एकदम उड़ा देना सही अर्थशास्‍त्र नहीं होगा। गवर्नरों को दखल देने का बहुत अधिकार देना ठीक नहीं है। वैसे ही उनकी सिर्फ शोभा के लिए पुतला बना देना भी ठीक नहीं होगा। मंत्रियों के काम को दुरुस्‍त करने का अधिकार उन्‍हें होना चाहिए। सब की खटपट से अलग होने के कारण भी वे सूबे का कारबार ठीक तरह से देख सकेंगे और मंत्रियों को गलतियों से बचा सकेंगे। गवर्नर लोग अपने-अपने सूबों की नीति के रक्षक होने चाहिए।

मंत्रीगण

अगर कांग्रेस को लोकसेवा की ही संस्‍था रहना है, तो मंत्री 'साहब लोगों' की तरह नहीं रह सकते और न सरकारी साधनों का उपयोग निजी कामों के लिए ही कर सकते हैं।

भाई-भतीजावाद

पद ग्रहण से यदि पद का सदुपयोग किया जाए जो कांग्रेस की प्रतिष्‍ठा बढ़ेगी और यदि उसका दुरुपयोग होगा तो वह अपनी पुरानी प्रतिष्‍ठा भी खो देगी। यदि दूसरे परिणाम से बचना हो तो मंत्रियों और विधान-सभा के सदस्‍यों को अपने वैयक्तिक और सार्वजनिक आचरण की जाँच करते रहना होगा। उन्‍हें, जैसा अँग्रेजी लोकोक्ति में कहा जाता हैं, सीजर को पत्‍नी की तरह अपने प्रत्‍येक व्‍यवहार में संदेह से परे होना चाहिए। वे अपने पद का उपयोग अपने या अपने रिश्‍तेदारों अथवा मित्रों के लाभ के लिए नहीं कर सकते। अगर रिश्‍तेदारों या मित्रों की नियुक्ति किसी पद पर होती हें, तो उसका कारण यही होना चाहिए कि उप पद के तमाम उम्‍मीदवारों में वे सबसे ज्‍यादा योग्‍य हैं और बाजार में उनका मूल्‍य उस सरकारी पद से उन्‍हें जो कुछ मिलेगा उससे कहीं ज्‍यादा है। मंत्रियों और कांग्रेस के टिकटपर चुने गए विधान-सभा के सदस्‍यों को अपने कर्त्‍तव्‍य के पालन में निर्भर होना चाहिए। उन्‍हें हमेशा ही अपना स्‍थान या पद खोने के लिए तैयार रहना चाहिए। विधान-सभाओं की सदस्‍यता या उसके आधार पर मिलने वाले पद का एकमात्र मूल्‍य यही है कि वह संबंधी व्‍यक्तियों को कांग्रेस की प्रतिष्‍ठा और ताकत बढ़ाने की योग्‍यता प्रदान करता है; इससे अधिक मूल्‍य उसका नहीं है। और चूँकि ये दोनों चीजें पूरी तरह वैयक्तिक और सार्वजनिक नीतिमत्‍ता पर निर्भर हैं, इसिलए संबंधित व्‍यक्तियों की प्रत्‍येक नैतिक त्रुटि से कांग्रेस को हानि होगी।

कर-निर्धारण

मंत्रि-मंडल धारासभा के सदस्‍यों के मातहत रहकर काम करता है। उनकी इजाजत के बिना वह कुछ कर नहीं सकता। और हर एक मेंबर अपने वोटरों के यानी लोकमत के अधीन है। चुनांचे उसके हर एक काम गहराई के साथ सोचने के बाद ही उसका विरोध करना मुनासिब होगा। आम लोगों की एक खराब आदत पर भी इस सिलसिलें में गौर किया जाना चाहिए। टैक्‍स चुकाने वाले को टैक्‍स के नाम से नफरत होती है। फिर भी जहाँ अच्‍छा इंतजाम है वहाँ अक्‍सर यह दिखाया जा सकता है कि टैक्‍स देने वाला खुद टैक्‍स या कर के रूप में जो कुछ देता है, उसका पूरा-पूरा मुआवजा उसे मिल जाता है। शहरों में पानी पर वसूल किया जाने वाला टैक्‍स इसी ढँग का है। शहर में जिस दर से मुझे पानी मिलता है, उस दर में मैं अपनी जरूरत का पानी खुद पैदा नहीं कर सकता। मतलब यह है कि पानी मुझे सस्‍ता पड़ता है। उसकी यह दर मुझे अपनी यानी वोटरों की इच्‍छा के मुताबिक तय करनी पड़ती है। तिस पर भी जब पानी का टैक्‍स जमा करने की नौबत आती है, तब आम श‍हरियों में उसके खिलाफ एक नफरत-सी पैदा हो जाती है। वही हाल दूसरे टैक्‍सों का भी है। यह सच है कि सभी तरह के टैक्‍सों का ऐसा सीधा हिसाब नहीं किया जा सकता। जैसे-जैसे समाज का और उसकी सेवा का दायरा बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे यह बताना मुश्किल हो जाता है कि टैक्‍स चुकाने वाले को उसका सीधा मुआवजा किस तरह मिलता है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि समाज पर जो एक खास का या टैक्‍स बैठाया जाता है, उसका समाज को पूरा-पूरा मुआवजा मिलता ही है। अगर ऐसा न होता हो तो जरूर ही यह कहा जा सकता है कि वह समाज लोकमत की बुनियादी पर नहीं चल रहा है।

अपराध और उसका दंड

अहिंसा की नीति पर चलने वाले आजाद भारत में अपराध तो होते रहेंगे, लेकिन उन्‍हें करने वालों के साथ अपराधियों जैसा व्‍यवहार नहीं किया जाएगा। उन्‍हें दंड नहीं दिया जाएगा। दूसरी व्‍याधियों की तरह अपराध भी एक बीमारी है और प्रचलित समाज-व्‍यवस्‍था की उपज है। इसलिए सारे अपराधों का, जिनमें हत्‍या भी शामिल है, बीमारियों की तरह इलाज किया जाएगा। भारत इस मंजिल तक कभी पहुँचेगा कि नहीं, यह एक अलग सवाल है।

आजाद हिंदुस्‍तान में कैदियों के जेल कैसे हों? बहुत समय से मेरी वह राय रही है कि सारे अपराधियों के साथ बीमारों-जैसा बरताव किया जाए और जेल उनके अस्‍पताल हों, जहाँ इस वर्ग के बीमार इलाज के लिए भरती किए जाएँ। कोई आदमी अपराध इसलिए नहीं करता कि ऐसा करने में उसे मजा आता है। अपराध उसके रोगी दिमाग की निशानी है। जेल में ऐसी किसी खास बीमारी के कारणों का पता लगाकर उन्‍हें दूर करना चाहिए। जब अपराधियों के जेल उनके अस्‍पताल बन जाएँगे, तब उनके लिए आलीशान इमारतों की जरूरत नहीं होगी। कोई भी देश यह नहीं कर सकता। तब हिंदुस्‍तान जैसा गरीब देश तो अपराधियों के लिए बड़ी-बड़ी इमारतें कहाँ से बनावेᣛ? लेकिन जेल के कर्मचारियों की दृष्टि अस्‍पताल के डॉक्‍टरों और नर्सों-जैसी होनी चाहिए। कैदियों को महसूस होना चाहिए कि जेल के अफसर उनके दोस्‍त हैं। अफसर वहाँ इसलिए हैं कि वे अपराधियों को फिर से दिमागी तंदुरुस्‍ती हासिल करने में मदद करें। उनका काम अपराधियों को किसी तरह सताने का नहीं है। लोकप्रिय सरकारों को इसके लिए जरूरी हुक्‍म निकालने होंगे। लेकिन इस बीच जेल के कर्मचारी अपने बंदोबस्‍त को इंसानियत भरा बनाने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं।

कैदियों का कया फर्ज है? पहले कैदी रह चुकने के नाते मैं अपने साथी कैदियों को सलाह दूँगा कि वे जेल में आदर्श कैदियों-जैसा बरताव करें। उन्‍हें जेल मे अनुशासन को तोड़ने से बचना चाहिए। जो भी काम उन्‍हें सौंपा जाए, उसमें उन्‍हे अपना दिल और आत्‍मा, दोनों लगा देने चाहिए। मिसाल के लिए, कैदी अपना खाना खुद पकाते हैं। उन्‍हें चावल, दाल या दूसरे मिलने वाले अनाज को साफ करना चाहिए, ताकि उसमें कंकड़ रेत, भूसी या कीड़े न रह जाएँ। कैदियों को अपनी सारी शिकायतें जेल के अधिकारियों के सामने उचित ढँग से रखनी चाहिए। उन्‍हें अपने छोटे से समाज में ऐसा काम करना चाहिए कि जेल छोड़ते समय वे जैसा आए थे उससे ज्‍याद अच्‍छे आदमी बनकर जाएँ।

वयस्‍क मताधिकार

मैं वयस्‍क मताधिकार का हिमायती हूँ। ... वयस्‍क मताधिकार अनेक कारणों से जरूरी है। और उसके पक्ष में जो निर्णायक कारण दिए जा सकते हैं, उनमें से एक यह है कि वह मुझे न सिर्फ मुसलमानों की बल्कि तथा‍कथिक अस्‍पृश्‍यों, ईसाइयों और सभी वर्गों के मेहनत-मजदूरी करके रोजी कमाने वालों की उचित आकांक्षाओं को संतुष्‍ट करने का सामर्थ्‍य देता है। मैं इस विचा को बरदाश्‍त ही नहीं कर सकती कि ऐसी किसी आदमी को, जो चरित्रवान है किंतु जिसके पास धन या अक्षर-ज्ञान नहीं है, मताधिकार न दिया जाए; या कि कोई आदमी, जो ईमानदारी के साथ शरीर-श्रम करके रोजी कमाता है, महज गरीब होने के अपराध के कारण मताधिकार से वंचित रहे।

मृत्‍यु-कर

किसी आदमी के पास अत्‍यधिक धन का होना और देशों की अपेक्षा हमारे देश मे ज्‍यादा निंदनीय माना जाना चाहिए। मैं तो कहूँगा कि वह भारतीय मानव-समाज के खिलाफ किया जाने वाला गुनाह है। इसलिए एक नियत राशि के ऊपर जितना धन हो उस पर कितना कर लगाया जाए, इसकी उच्‍च्‍तम सीमा आ ही नहीं सकती। मझे मालूम हुआ है कि इंग्लैंड में नियम राशि के ऊपर होने वाली कमाई का 70 प्रतिशत तक कर के रूप में वसूल करते हैं। कोई कारण नहीं कि भारत इससे भी ज्‍यादा क्‍यों न वसूल करे। मृत्‍यु-कर क्‍योनहीं लगाया जाना चाहिएᣛ? अमीरों के जिन लड़कों को वयस्‍क हो जाने पर भी बाप-दादों के धन की विरासत मिलती है, उनकी इस प्राप्ति से सचमुच तो हानि ही होती है। इस तरह देखें तो राष्‍ट्र को दोहरा नुकसान होता है। क्‍योंकि वह विरासत न्‍याय से तो राष्‍ट्र की मिलनी चाहिए। राष्‍ट्र को दूसरा नुकसान यह होता है कि विरासत पाने वाले उत्‍तराधिकारी की सारी शक्तियाँ खिलती नहीं, प्रकाश में नहीं आतीं। वे धन-संपत्ति के बोझ के नीचे कुचल जाती है।

कानून द्वारा सुधार

लोग ऐसा सोचते मालूम होते हैं कि किसी बुराई के खिलाफ कानून बना दिया जाए, तो वह अपने-आप निर्मल हो जाती है। उस संबंध में और अधिक कुछ करने की आवश्‍यकता नहीं रहती। लेकिन इससे ज्‍यादा बड़ी कोई आत्‍म-वंचन नहीं हो सकती। कानून तो अज्ञान में फंसे हुए या बुरी वृत्ति वाले अल्‍पसंख्‍यक लोगों को ध्‍यान में रखकर यानी उसने उनकी बुराई छुड़वाले के उद्देश्‍य से बनाया जाता है और उसी स्थिति में वह कारगर भी होता है। बुद्धिमान और संघटित लोकमत अथवा धर्म की आड़ लेकर दुराग्रही बहुसंख्‍यक लोग जिस कानून का विरोध करते हैं वह कभी सफल नहीं हो सकता।

पहली चीज तो यह है कि हमारे प्रयत्‍न में जबरदस्‍ती या असत्‍य का लेश भी नहीं होना चाहिए। मेरी नम्र राय में आज तक जबरदस्‍ती के द्वारा कोई भी महत्‍त्‍वपूर्ण सुधार नहीं कराया जा सका है। कारण यह है कि जबरदस्‍ती के द्वारा ऊपरी सफलता होती दिखाई दे यह तो संभव है, किंतु उससे दूसरी अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं, जो मूल बुराई से भी ज्‍यादा हानिकारक सिद्ध होती हैं।

जूरी द्वारा न्‍याय-विचार की पद्धति

जूरी द्वारा न्‍याय-विचार की पद्धति से अक्‍सर न्‍याय की हानि होती है। सारी दुनिया का इस विषय में यही अनुभव है। लेकिन उसकी इस कमी के बावजूद लोगों ने सब जगह उसे खुशी के साथ स्‍वीकार किया है। क्‍योंकि एक तो लोगों में उससे स्‍वातंत्रय की भावना का विकास होता है, जो एक महत्‍त्‍वपूर्ण लाभ है; और दूसरे इस समुचित भावना की तृप्ति होती है कि विचार अपने ही जैसे यानी समकक्ष लोगों द्वारा किया जा रहा है।

मैं इस बात को नहीं मानता कि न्‍यायाधीशों की अपेक्षा जूरी द्वारा न्‍याय-विचार की पद्धति में ज्‍यादा लाभ है। हमें… अँग्रेजों की हर एक नीति का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए। जहाँ संपूर्ण निष्‍पक्षता, समुचित्‍त्‍ता, गवाही की छान-बीन करने और मनुष्‍य-स्‍वभाव को पहचानने की योग्‍यता अपेक्षित है, वहाँ प्रशिक्षित न्‍यायाधीशों की जगह ऐसी तालीम से शून्‍य और संयोगवश एकत्र किए गए लोगों को नहीं बिठाया जा सकता। हमारा उद्देश्‍य यह होना चाहिए कि नीचे से लगाकर ऊपर तक हमारे न्‍याय-विभाग में ऐसे लोग हों जिनकी न्‍यायनिष्‍ठा किसी भी कारण से विचलित न हो, जो सर्वथा निष्‍पक्ष हों और योग्‍य हों।

न्‍यायालय

यदि हमारे मन पर वकीलों का और न्‍यायालयों का मोह न छाया होता और यदि हमें लुभाकर अदालतों के दलदल में ले जाने वाले तथा हमारी नीच वृत्तियों की उत्‍साहित करने वाले दलाल न होते, तो हमारा जीवन आज जैसा है उसकी अपेक्षा ज्‍यादा सुखी होता। जो लोग अदालतों में ज्‍यादा आते-जाते हैं उनकी यानी उनमें से अच्‍छे आदमियों की गवाही लीजिए, तो वह इस बात की पुष्टि करेंगे कि अदालतों का वायुमंडल बिलकुल सड़ा हुआ होता है। दोनों पक्षों की ओर से सौगंध खाकर झूठ बोलने वाले गवाह खड़े किए जाते हैं, जो धन या मित्रता के खातिर अपनी आत्‍मा को बेच डालते हैं।

अब अगर आप कानून या वकालत के पेशे को धार्मिक बनाना चाहते है, तो आपके लिए सबसे पहले यह आवश्‍यक है कि आप अपने इस पेशे को धन बटोरने का नहीं, बल्कि देश-सेवा का एक साधन मानिए। सभी देशों में ऐसे बहुत ही योग्‍य वकीलों के उदाहरण मिलेंगे, जिन्‍होंने बहुत बड़े स्‍वार्थत्‍याग का जीवन बिताया, अपनी कानूनी ज्ञान को देश-सेवा में लगाया, यद्यपि इससे उनके हिस्‍से में गरीबी-ही-गरीबी पड़ी। ... रस्किन ने कहा है, क्‍यों कोई वकील दो-दो सौ रुपए अपना मेहनताना लेगा, जब कि एक बढ़ाई को उतने पैसे भी नहीं मिलतेᣛ? वकीलों की फीस हर जगह उनके काम के हिसाब से बहुत ज्‍यादा होती है। दक्षिण अफ्रीका में, इग्लैंड में, बल्कि सभी कहीं मैंने देखा है कि चाहे जान-बूझकर या अनजाने वकीलों को अपने मुवक्किलों के खातिर झूठ बोलना पड़ता है। एक प्रसिद्ध अँग्रेज वकील ने तो यहाँ तक लिखा है कि अपने मुवक्किलों को अपराधी जानकर भी उसका बचाव करना वकील का धर्म है, कर्त्‍तव्‍य है। मेरा मत दूसरा है। वकील का काम तो यह है कि वह हमेशा जजों के आगे सच्‍ची बातें रख दें, सच की तह तक पहुँचने में उनकी मदद करे। अपराधी को निर्दोष साबित करना उसका काम कभी नहीं है।

सांप्रदायिक प्रतिनिधित्‍व

आजाद भारत सांप्रदायिक प्रतिनिधित्‍व की प्रणाली को प्रश्रय नहीं दे सकता। किंतु यह भी सही है कि यदि अल्‍पसंख्‍यक लोगों पर जबरदस्‍ती नहीं करना है, तो उसे सभी संप्रदायों को पूरा संतोष देना चाहिए।

सैनिक खर्च

हमारे नेता पिछली दो पीढ़ियों से ब्रिटिश शासन के अंतर्गत होने वाले भारी फौजी खर्च की जोरदार निंदा करते आए हैं। लेकिन अब जब कि हम राजनीतिक गुलामी से आजाद हो गए हैं, हमार सैनिक खर्च बढ़ गया है और मालूम होता है कि अभी और बढ़ेगा। आश्‍चर्य यह है कि हमें इसका गर्व है। इस बात के खिलाफ हमारी विधान-सभाओं में एक भी आवाज नहीं उठाई जाती। लेकिन इस पागलपन और पश्चिम की ऊपरी चमक-दमक के निरर्थक अनुकराण के बावजूद मुझ में और अन्‍य अनेकों में यह आशा बाकी है कि भारत विनाश के इस तांडव से सुरक्षित बाहर निकल जाएगा और उस नैतिक ऊँचाई को प्राप्‍त करेगा, जो सन् 1915 से लगातार 32 वर्ष तक अहिंसा की तालीम-यह तालीम कितनी भी अधूरी क्‍यों न रही हो-लेने के बाद उसे प्राप्‍त करनी ही चाहिए।

जलसेना

जलसेना के बारे में मैं नहीं जानता। लेकिन यह मैं जरूर जानता हूँ कि भावी भारत की स्‍थलसेना में आज की तरह दूसरे देशो से उनकी स्‍वतंत्रता छीनने के लिए और भारत की गुलामी के पाश में बांधे रखने के लिए किराए के सैनिक नहीं होंगे। उसकी संख्‍या बहुत-कुछ घटा दी जाएगी और उसकी रचना देश सेवा के लिए स्‍वच्‍छापूर्वक भरती हुए सैनिकों के आधार पर होगी, जिनका उपयोग देश में ही पुलिस-व्‍यवस्‍था के लिए किया जाएगा।

63 धर्म-परिवर्तन

मेरी हिंदू धर्मवृत्ति मुझे सखाती है कि थोड़ी या बहुत अंशों में सभ धर्म सच्‍चे हैं। सबकी उत्‍पत्ति एक ही ईश्‍वर से हुई है, परंतु सब धर्म अपूर्ण हैं; क्‍योंकि वे अपूर्ण मानव-माध्‍यम के द्वारा हम तक पहुँचे हैं। सच्‍चा शुद्धि का आंदोलन यह होना चाहिए कि हम सब अपने अपने धर्म में रहकर पूर्णता प्राप्‍त करने का प्रयत्‍न करें। इस प्रकार की योजना में एकमात्र चरित्र ही मनुष्‍य की कसौटी होगा। अगर एक बड़ें से निकलकर दूसरे मे चले जाने से कोई नैतिक उत्‍थान न होता हो तो जाने से क्‍या लाभ? शुद्धि या तबलीग का फलितार्थ ईश्‍वर की सेवा ही होना चाहिए। इसलिए मैं ईश्‍वर की सेवा के खातिर यदि किसी का धर्म बदलने की कोशिश करूँ तो उसका क्‍या अर्थ होगा, जब मेरे ही धर्म को मानने वाले रोज अपने कर्मों से ईश्‍वर का इनकार करते हैं? दुनियावी बातों के बनिस्‍बत धर्म के मामलों में यह कहावत अधिक लागू होती है कि 'वैद्यजी, पहले अपना इलाज कीजिए।'

मैं धर्म-परिवर्तन की आधुनिक‍ पद्धति के खिलाफ हूँ। दक्षिण अफ्रीका में और भारत में लोगों का धर्म-परिवर्तन जिस तरह किया जाता है, उसके अनेक वर्षों के अनुभव से मुझे इस बात का निश्‍चय हो गया है कि उससे नए ईसाइयों की नैतिक भावना में कोई सुधार नहीं होता; वे यूरोपीय सभ्‍यता की ऊपरी बातों की नकल करने लगते हैं, किंतु ईसा की मूल शिक्षा से अछूते ही रहते हैं। मैं समान्‍यत: जो परिणाम आता है उसी की बात कर रहा हूँ, इस नियम के कुछ उत्‍तम अपवाद तो होते ही हैं। दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों के प्रयत्‍न से भारत को अप्रत्‍यक्ष प्रकार का लाभ बहुत हुआ है। उसने हिंदुओं और मुसलमानों को अपने-अपने धर्म की शोध करने के लिए उत्‍साहित किया है। उसने हमें अपने घर को साफ सुथरा और व्‍यवस्थित बनाने के लिए मजबूर कियाहै। ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाई जाने वाली शिक्षा-संस्‍थाओं तथा अस्‍पतालों आदि को भी मैं अप्रत्‍यक्ष लाभों में गिनता हूँ, क्‍योंकि उनकी स्‍थापना शिक्षा-प्रचार या स्‍वास्‍थ्‍य-संवर्धन के लिए नहीं, बल्कि धर्म-परिवर्तन की उनकी मुख्‍य प्रवृत्ति के सहायक साधन के रूप में ही हुई है।

मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना कम-से-कम अहितकार तो है ही। अवश्‍य ही यहाँ के लोग इसे नाराजी की दृष्टि से देखते हैं। आखिर तो धर्म एक गहरा व्‍यक्तिगत मामला है, उसका संबंध हृदय से है। कोई ईसाई डॉक्‍टर मुझे किसी बीमारी से अच्‍छा कर दे तो में अपना धर्म क्‍यों बदल लूँ, या जिस समय मैं उसक असर में रहूँ तब वह डॉक्‍टर मुझसे इस तरह के परिवर्तन की आशा क्‍यों रखें या ऐसा सुझाव क्‍यों दें? क्‍या डॉक्‍टरी सेवा अपने-आप में ही एक पारितोषिक और संतोष नहीं है? या जब मैं किसी ईसाई शिक्षा-संस्‍थान में शिक्षा लेता होऊँ तब मुझ पर ईसाई शिक्षा क्‍यों थोपी जाए? मेरी राय में ये बातें ऊपर उठाने वाली नहीं हैं, और अगर भीतर-ही-भीतर शत्रुता पैदा नहीं करतीं तो भी संदेह अवश्‍य उत्‍पन्‍न करती हैं। धर्म-परिवर्तन के तरीके ऐसे होने चाहिए, जिन पर सीजर की पत्‍नी की तरह किसी को कोई शक नहो सके। धर्म की शिक्षा लौकिक विषयों की तरह नहीं दी जाती। वह हृदय की भाषा में दी जाती है। अगर किसी आदमी में जीता-जागता धर्म है तो वह उसकी सुगंध गुलाब के फूल की तरह अपने-आप फैलती है। सुगंध दिखाई नहीं देती, इसलिए फूल की पंखुड़ियों के रंग की प्रत्‍यक्ष सुंदरता से उसकी सुगंध का प्रभाव अधिक व्‍यापक होता है।

मैं धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध नहीं हूँ, परंतु मैं उसके आधुनिक उपायों के विरुद्ध हूँ। आजकल और बातों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी एक व्‍यापार का रूप ले लिया है। मुझे ईसाई धर्म-प्रचार कों की एक रिपोर्ट पढ़ी हुई याद है, जिसमें बताया गया था कि प्रत्‍येक व्‍यक्ति का धर्म बदलने में कितना खर्च हुआ, और फिर 'अगली फसल' के लिए बजट पेश किया गया था।

हाँ, मेरी यह राय जरूर है कि भारत के महान धर्म उसके लिए सब तरह से काफी हैं। ईसाई और यहूदी धर्म के अलावा हिंदू धर्म और उसकी शाखाएँ, इस्‍लाम और पारसी धर्म सब सजीव धर्म हैं। दुनिया में कोई भी एक धर्म पूर्ण नहीं है। सभी धर्म उनके मानने वालों के लिए समान रूप से प्रिय हैं। इसलिए जरूरत संसार के महान मर्धों के अनुयायियों में सजीव और मित्रतापूर्ण संपर्क स्‍थापित करने की है, न कि हर संप्रदाय द्वार दूसरे धर्मों की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्‍ठता जताने की व्‍यर्थ कोशिश करके आपस में संघर्ष पैदा करने की। ऐसी मित्रतापूर्ण संबंध के द्वार हमारे लिए अपने-अपने धर्मों की कमियाँ और बुराइयाँ दूर करना संभव होगा।

मैंने ऊपर जो कुछ कहा है उससे यह निष्‍कर्ष निकलता हे कि जिस पह्रकार का धर्म-परिवर्तन मेरी दृष्टि में है उसी हिंदुस्‍तान में जरूरत नहीं है। आज की सबसे बड़ी आवश्‍यकता यह है कि आत्‍म शुद्धि, आत्‍म-साक्षात्‍कार के अर्थ में धर्म-परिवर्तन किया जाए। परंतु धर्म-परिवर्तन करने वालों का यह हेतु कभी नहीं होता। जो भारत का धर्म-परिवर्तन करना चाहते हैं, उनसे क्‍या यह नहीं कहा जा सकता कि 'वैद्यजी, आप अपना ही इलाज कीजिए?

कोई ईसाई किसी हिंदू को ईसाई धर्म में लाने की या कोई हिंदू किसी ईसाई को हिंदू धर्म में लाने की इच्‍छा क्‍यों रखे? वह हिंदू य‍दि सज्‍जन है या भगवद्-भक्‍त है, तो उक्‍त ईसाई को इसी बात से संतोष क्‍यों नहीं हो जाना चाहिए। यदि मनुष्‍य का नैतिक आचार कैसा है इस बात की परवाह न की जाए, तो फिर पूजा की पद्धति-विशेष-वह पूजा गिरजाघर, मसजिद या मंदिर में कहीं भी क्‍यों नकी जाए-एक निरर्थक कर्मकांड ही होगी। इतना ही नहीं, वह व्‍यक्ति या समाज की उन्‍नति में बाधरूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धति के पालन का अथवा अमुक धार्मिक सिद्धांत के उच्‍चारण का आग्रह हिंसापूर्ण लड़ाई-झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है। ये लड़ाई-झगड़े आपसी रक्‍तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिसमाप्ति मूल धर्म में यानी ईश्‍वर में हो घोर अश्रद्धा के रूप में होती है।

62 भारत में धार्मिक सहिष्णुयता

हिंदू धर्म

मैं जितने धर्मों को जानता हूँ उन सब में हिंदू धर्म सबसे अधिक सहिष्‍णु है। इसमें कट्टरता का जो अभाव है वह मुझे बहुत पसंद आता है, क्‍यों कि इससे उसके अनुयायों को आत्‍माभिव्‍यक्ति के लिए अधिक-से-अधिक अवसर मिलता है। हिंदू धर्म एकांगी धर्म नहीं होने के कारण उसके अनुयायी न सिर्फ अन्‍य सब धर्मों पर आदर कर सकते है, परंतु दूसरे धर्मों में जो कुछ अच्‍छाई हो उसकी प्रशंसा भी कर सकते हैं और उसे हजम भी कर सकते हैं। अहिंसा सब धर्मों में समान है। परंतु हिंदू धर्म में वह सर्वोच्‍च रूप में प्रगट हुई हैं। और उसका प्रयोग भी हुआ है। (मैं जैन धर्म या बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म से अलग नहीं मानता।) हिंदू धर्म न केवल मनुष्‍य मात्र की बल्कि प्राणीमात्र कि एकता में विश्‍वास रखता है। मेरी राय में गाय की पूजा करके उसने दया धर्म के विकास में अद्भुत सहायता की है। यह प्राणीमात्र की एकता में और इसलिए पवित्रता में विश्‍वास रखने का व्‍यावहारिक प्रयोग हैं। पुनर्जन्‍म की महान धारणा इस विश्‍वास का सीधा परिणाम है। अंत में वर्णाश्रम धर्म का आवि‍ष्‍कार सत्‍य की निरंतर शोध का भव्‍य परिणाम है।

बौद्ध धर्म

मेरा दृढ़ मत है कि बौद्ध धर्म या बुद्ध की शिक्षा का पूरा परिणत विकास भारत में ही हुआ; इससे भिन्‍न कुछ हो भी नहीं सकता था, क्‍योंकि गौतम स्‍वयं एक श्रेष्‍ठ हिंदू ही तो थे। वे हिंदू धर्म में जो कुछ उत्‍तम है उससे ओतप्रोत थे और उन्‍होंने अपना जीवन कतिपय ऐसी शिक्षाओं की शोध और प्रसार के लिए दिया, जो वेदों में छिपी पड़ी थीं और जिन्‍हें समय की कोई ने ढक दिया था। ...बुद्ध ने हिंदू धर्म का कभी त्‍याग नहीं किया; उन्‍होंने तो उसके आधार का विस्‍तार किया। उन्‍होंने उसे नया जीवन और नया अर्थ दिया।

बेशक, उन्‍होंने इस धारणा को अस्‍वीकार कर दिया था कि ईश्‍वर नामधारी कोई प्राणी द्वेषवश काम करता है, अपने कर्मों पर पश्‍चात्‍ताप कर सकता हैं, पार्थिव राजाओं की तरह वह भी प्रलोभनों और रिवाजों में फँस सकता है और उसका कृपापात्र बना जा सकता है। उनकी सारी आत्‍मा ने इस विश्‍वास के विरुद्ध प्रबल विद्रोह किया था कि ईश्‍वर नामधारी प्राणी को अपने ही पैदा किए हुए जीवित प्राणियों का जाता खून अच्‍छा लगता है और इससे वह प्रसन्‍न होता है। इसलिए बुद्ध ने ईश्‍वर को फिर से उसके उचित स्‍थान पर बिठा दिया और जिस अ‍नधिकारी ने उस सिंहासन को हस्‍तगत कर लिया था उसे पदभ्रष्‍ट कर दिया। उन्‍होंने जोर देकर पुन: इस बात की घोषणा की कि इस विश्‍व का नैतिक शासन शाश्‍वत है और अपरिवर्तनीय है। उन्‍होंने नि:संकोच यह कहा कि नियम ही ईश्‍वर हैं।

ईसाई धर्म

मैं यह नहीं मान सकता कि केवल ईसा में ही देवांश था। उनमें उतना ही दिव्‍यांश था जितना कृष्‍ण, राम, मुहम्‍मद या जरथुस्‍त्र में था। इसी तरह जैसे मैं वेदों या कुरान के प्रत्‍येक शब्‍द को ईश्‍वर-प्रेरित नहीं मानता, वेसे ही बाइबल के प्रत्‍येक शब्‍द को भी ईश्‍वर-प्रेरित नहीं मानता। बेशक, इन पुस्‍तकों की समस्‍त वाणी ईश्‍वर-प्रेरित नहीं मिलती। मेरे लिए बाइबल उतनी ही आदरणीय धर्म-पुस्‍तक है, जितनी गीता और कुरान है।

यह मेरी पक्‍की राय है कि आज का यूरोप न तो ईश्‍वर की भावना का प्रतिनिधि है, न ईसाई धर्म की भावना का, बल्कि शैतान की भावना का प्रतीक है। और शैतान की सफलता तब सब से अधिक होता है, जब वह अपनी जबान पर खुदा का नाम लेकर सामने आता है। यूरोप आज नाममात्र को ही ईसाई है। वह सचमुच धन की पूजा कर रहा है। 'ऊँट के लिए सुई की नो में होकर निकलना आसान है, मगर किसी धनवान का स्‍वर्ग में जाना मुश्किल है।' ईसा मसीह ने यह बात ठीक ही कहीं थी। उनसे तथाकथिक अनुयायी अपनी नैतिक प्रगति को अपनी धन-दौलत से ही नापते हैं।

इस्‍लाम

अवश्‍य ही मैं इस्‍लाम को उसी अर्थ में शांति का धर्म मानता हूँ, जिस अ‍र्थ में ईसाई, बौद्ध और हिंदू धर्म शांति के धर्म हैं। बेशक, मात्र का फर्क है, परंतु इन सब धर्मों का उद्देश्‍य शांति ही है।

भारत की राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के लिए इस्‍लाम की विशेष देन तो यह है कि वह एक ईश्‍वर में शुद्ध विश्‍वास रखता है और जो लोग उसके दायरे के भीतर हैं उनके लिए व्‍यवहार में वह मानव-भ्रातृत्‍व के सत्‍य को लागू करता है। इन्‍हें मैं इस्‍लाम की दो विशेष देनें मानता हूँ, क्‍योंकि हिंदू धर्म में भ्रातृभाव बहुत अधिक दर्शनिक बन गया हैं। इसी तरह दर्शनिक हिंदू धर्म में ईश्‍वर कि व्‍यावहारिक हिंदू धर्म इस मामले में इतना कट्टर और दृढ़ आग्रह नहीं रखता जितना इस्‍लाम रखता है।

मैं ऐसी आशा नहीं करता हूँ कि मेरे सपनों के आदर्श भारत में केवल एक ही धर्म रहेगा, यानी वह संपूर्णत: हिंदू या ईसाई या मुसलमान बन जाएगा। मैं तो यह चाहता हूँ कि वह पूर्णत: उदार और सहिष्‍णु बने और उसके सब धर्म साथ-साथ चलते रहें है।

मूर्तिपूजा

हम सब मूर्तिपूजक हैं। अपने आध्‍यात्मिक विकास के लिए और ईश्‍वर में अपने विश्‍वास को दृढ़ करने के लिए हमें मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों आदि की जरूरत महसूस होती है। अपने मन में ईश्‍वर के प्रति भक्तिभाव प्रेरित करने के लिए लोगों को पत्‍थर या धातु की मूर्तियाँ चाहिए, कुछ को वेदी चाहिए, तो कुद को किताब या तस्‍वीर चाहिए।

मंदिर, मसजिद या गिरजाघर... ईश्‍वर के इन विभिन्‍न निवास-स्‍थानों में मैं कोई फर्क नहीं करता। मनुष्‍य की श्रद्धा ने उनका निर्माण किया है और उसने उन्‍हें जो माना है वही वे हैं। वे मनुष्‍य की किसी तरह 'अदृश्‍य शक्ति' तक पहुँचने की आकांक्षा के परिणाम हैं।

मेरे खयाल से मूर्ति-पूजक और मूर्ति-भंजक शब्‍दों का जो सच्‍चा अर्थ है उस अर्थ में मैं दोनों ही हूँ। मैं मूर्तिपूजा की भावना की कद्र करता हूँ। इसका मानव-जाति के उत्‍थान में अत्यंत महत्‍त्‍वपूर्ण भाग रहता है। और मैं चाहूँगा कि मुझ में हमारे देश को पवित्र करने वाले हजारों पावन देवालयों की रखा अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी करने का सामर्थ्‍य हो। ... मैं मूर्ति-भंजक इस अर्थ में हूँ कि कट्टरता के रूप में मूर्ति-पूजा मूर्ति-पूजा का जो सूक्ष्‍म रूप प्रचलित है उसे मैं तोड़ता हूँ। ऐसी कट्टरता रखने वाले को अपने ही ढँग के सिवा और किसी भी रूप में ईश्‍वर की पूजा करने में कोई अच्‍छाई नजर नहीं आती। मूर्तिपूजा का यह रूप अधिक सूक्ष्‍म होने के कारण पूजा के उस ठोस और स्‍थल रूप से अधिक घातक है, जिसमें ईश्‍वर को पत्‍थर के एक छोटे-से टुकड़े के साथ या साने की मूर्ति के साथ एक समझ लिया जाता है।

जब हम किसी पुस्‍तक को पवित्र समझकर उसका आदर करते है, तो हम मूर्ति की पूजा ही करते हैं। पवित्रता या पूजा के भाव से मंदिरों या मसजिदों में जाने का भी वही अर्थ है। लेकिन इस सब बातों में मुझे कोई हानि नहीं दिखाई देती। उलटे, मनुष्‍य की बुद्धि सीमित है, इसलिए वह और कुद कर ही नहीं सकता। ऐसी हालत में वृक्षपूजा में कोई मौलिक बुराई या हानि दिखाई देने के बजाय मुझे तो इसमें एक गहरी भावना और काव्‍यमय सौंदर्य ही दिखाई देता है। वह समस्‍त वनस्‍पति-जगत के लिए सच्‍चे पूजाभाव का प्रतीक है। वनस्‍पति-जगत तो सुंदर रूपों और आकृतियों का अनंत भंडार है; उनक द्वारा वह मानों असंख्‍य जिह्वाओं से ईश्‍वर की महानता और गौरव की घोषणा करता है। वनस्‍पति के बिना इस पृथ्‍वी पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। इसलिए ऐसे देश में, जहाँ खास तौर पर पेड़ों की कमी है, वृक्षपूजा का एक गहरा आर्थिक महत्‍त्‍व जो जाता है।

61 अस्पृ्श्यता का अभिशाप

आजकल हिंदू धर्म में जो अस्‍पृश्‍यमा देखने में आती है, वह उसका एक अमिट कलंक है। मैं यह मानने से इनकार करता हूँ कि वह हमारे समाज में स्‍मरणातीत काल से चली आई है। मेरा खयाल है कि अस्‍पृश्‍यता की यह घृणित भावना हम लोगों में तब आई होगी जब हम अपने पतन की चरम सीमा पर रहे होंगे। और तब से यह बुराई हमारे साथ लग गई और आज भी लगी हुई है। मैं मानता हूँकि यह एक भयंकर अभिशाप है। और यह अभिशाप जब तक हमारे साथ रहेगा तब तक मुझे लगता है कि इस पावन भूमि में हमें जब जो भी तकलीफ सहना पड़े वह हमारे इस अपराध का, जिसे हम आज भी कर रहे हैं, उचित दंड होगी।

मेरी राय में हिंदू धर्म में दिखाई पड़ने वाला अस्‍पृश्‍यता का वर्तमान रूप ईश्‍वर और मनुष्‍य के खिलाफ किया गया भयंकर अपराध है और इसलिए वह एक ऐसा विष है जो धीरे-धीरे हिंदू धर्म के प्राण को ही नि:शेष किए दे रहा है। मेरी राय में शास्‍त्रों में, यदि हम सब शास्‍त्रों में एक तरह की हितकारी अस्‍पृश्‍यता का विधान जरूर है, लेकिन उस तरह की अस्‍पृश्‍यता तो सब धर्मों मे पाई जाती है। वह अस्‍पृश्‍यता तो स्‍वच्‍छता के नियम का ही एक अंग है। वह तो सदा रहेगी। लेकिन भारत में हम एक प्रांत में, यहाँ तक कि हर एक जिले में, अलग-अलग कितने ही रूप हैं। उसने अस्‍पृश्‍यों और स्‍पृश्‍यों, दोनों को नीचे गिराया है। उसने लगभग चार करोड़ मनुष्‍यों का विकास रोक रखा है। उन्‍हें जीवन की सामान्‍य सुविधाएँ भी नहीं दी जाती। इसलिए इस बुराई को जितनी जल्‍दी निर्मल कर दिया जाए, उतना ही हिंदू धर्म, भारत और शायद समग्र मानव-जाति के लिए वह कल्‍याणकारी सिद्ध होगा।

यदि हम भारत की आबादी के पाँच वे हिस्‍से को स्‍थायी गुलामी की हालत में रखना चाहते हैं और जान-बूझकर राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के फलों से वंचित रखना चाहते है, तो स्‍वराज्‍य एक अर्थहीन शब्‍द मात्र होगा। आत्‍म शुद्धि के इस महान आंदोलन में हम भगवान की मदद की आकांक्षा रखते हैं, लेकिन उसकी प्रजा के सबसे ज्‍यादा सुपात्र अंश को हम मानवता के अधिकारों से वंचित रखते हैं। यदि हम स्‍वयं मानवीय दया से शून्‍य हैं, तो उसके सिंहासन के निकट दूसरों की निष्‍ठुरता से मुक्ति पाने की याचना हम नहीं कर सकते।

इस बात से कभी किसी ने इनकार नहीं किया है कि अस्‍पृश्‍यता एक पुरानी प्रथा है। लेकिन यदि वह एक अनिष्‍ट वस्‍तु है, तो उसकी प्राचीनता के आधार पर उसका बचाव नहीं किया जा सकता। यदि अस्‍पृश्‍य लोग आर्यों के समाज के बाहर हैं, तो इसमें उस समाज की ही हानि है। और यदि यह कहा जाए कि आर्यों ने अपनी प्रगति-यात्रा में किसी मंजिल पर किसी वर्ग-विशेष को दंड के तौर पर समाज से बहिष्‍कृत कर दिया था, तो उनके पूर्वजों को किसी भी कारण से दण्डित किया गया हो, परंतु वह दंड उस वर्ग की संतान को देते रहने का कोई कारण नहीं हो सकता। अस्‍पृश्‍य लोग भी आपस में अस्‍पृश्‍यता का जो पालन करते हैं, उससे इतनी ही सिद्ध होता है कि किसी अनिष्‍ट वस्‍तु को सीमित नहीं रखा जा सकता और उसका घातक प्रभाव सर्वत्र फैल जाता है। अस्‍पृश्‍यों में भी अस्‍पृश्‍यता का होना इस बात के लिए एक अतिरिक्‍त कारण है कि सुसंस्‍कृत हिंदू समाज को इस अभिशाप से जल्‍दी-से-जल्‍दी मुक्‍त हो जाना चाहिए। यदि अस्‍पृश्‍यों को अस्‍पृश्‍य इसलिए माना जाता है कि वे जानवारों को मानते हैं और माँस, रक्‍त, हडिडयां और मैला आदि छूते हैं, तब तो हर एक नर्स और डॉक्‍टर को भी अस्‍पृश्‍य माना जाना चाहिए; और इसी तरह मुसलमानों, ईसाइयों और तथाकथित ऊँचे वर्गों के उन हिंदुओं को भी अस्‍पृश्‍य माना जाना चाहिए, जो आहार अथवा बलि के लिए जानवरों की हत्‍या करते हैं। कसाई खाने, शराबकी दुकानें, वेश्‍यालय आदि बस्‍ती से अलग होते हैं या होने चाहिए, इसलिए अस्‍पृश्‍यों को भी समाज से दूर और अलग रखा जाना चाहिए-यह दलील अस्‍पृश्‍यों के खिलाफ लोगों के मन में चले आ रहे उत्‍कट पूर्वाग्रह को ही बताती है। कसाई खाने और ताड़ी-शराब की दुकानें आदि जरूर बस्‍ती से दूरतथा अलग होते हैं और होने चाहिए। लेकिन कसाइयों और ताड़ी अथवा शराब के विक्रेताओं को शेष समाज से अलग नहीं रखा जाता।

हम आंतरिक प्रलोभनों तथा मोह में लिप्‍त हैं और अत्‍यंत अस्‍पृश्‍य और पापपूर्ण विचारों के प्रवाह हमारे मन में चलते हैं और उसे कलुषित करते हैं। हमें समझना चाहिए कि हमारी कसौटी हो रही है। ऐसी स्थिति में हम अभिमान के आवेश में अपने उन भाइयों के स्‍पर्श के प्रभावके बारे में, जिन्‍हें हम अक्‍सर अज्ञानवश और ज्‍यादातर तो दुरभिमान के कारण अपने से नीचा समझते हैं, अत्‍युक्ति न करें। भगवान के दरबार में हमारी अच्‍छाई-बुराई का निर्णय इस बात से नहीं किया जाएगा कि हम क्‍या खाते-पीते रहे हैं या हमें किस-किसने छुआ है; उसका निर्णय तो इस आधार पर किया जाएगा कि हमने किन-किन की सेवा की है और किस तरह की है। यदि हमने एक भी दीन-दुखी आदमी की सेवा की होगी, तो हमें भगवान की कृपादृष्टि प्राप्‍त होगी। ... अमुक वस्‍तुएँ न खाने की बात का उपयोग हम कपट-जाल, पाखंड और उससे भी अधिक पापपूर्ण कार्यों को छिपाने के लिए नहींकर सकते। इस आशंका से कि कहीं उनका स्‍पर्श हमारी आध्‍यात्मिक उन्‍नति में बाधक न हो, हम किसी पतित अथवा गंदी रहन-सहन वाले भाई-बहन की सेवा से इनकार नहीं कर सकते।

भंगी

जिस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है। वहाँ कोई बड़ा दोष पैठ गया है, ऐसा मुझे तो बरसों से लगता रहा है। इस जरूरी और तंदुरुस्‍ती बढ़ाने वाले काम को सबसे नीच काम पहले-पहल किसने माना, इसका इतिहास हमारे पास नहीं है। जिसने भी माना उसने हम पर उपकार तो नहीं ही किया। हम सब भंगी है, वह यह भावना हमारे मन में बचपन से ही जम जानी चाहिए; और उसका सबसे आसान तरीका यह है कि जो समझ गए हैं वे जात-मेहनत का आरंभ पाखाना-सफाई से करें। जो समझ-बूझकर ज्ञानपूर्वक यह करेगा,वह उसी क्षण से धर्म को निराले ढँग से और सही तरीके से समझने लगेगा।

आरंभ में अस्‍पृश्‍यता स्‍वच्‍छता के नियमों में से एक थी और भारत के बाहर दुनिया के कई हिस्‍सों में आज भी उसका यही रूप है। वह नियम यह है कि चीज गंदी हो गई हो या आदमी किसी कारण गंदा हो गया हो तो उसे छूना नहीं चाहिए, लेकिन ज्‍यों ही उसका गंदापन दूर हो जाए या कर दिया जाए त्‍यों ही उसे छू सकते हैं। इसलिए भंगी काम करने वाले व्‍यक्ति-‍फिर चाहे वह भंगी हो जिसे कि उस काम का पैसा मिलता है या माँ हो जिसे अपने इस काम का कोई पैसा नहीं मिलता तब तक गंदे और अस्‍पृश्‍य माने जाएँगे, जब तक वे नहा-धोकर इस गंदगी को दूर नहीं कर देते। इसलिए भंगी हमेशा के लिए अस्‍पृश्‍य न माना जाए, बल्कि उसे हम अपना भाई मानें। वह समाज की एक ऐसी सेवा करता है, जिसमें उसका शरीर गंदा हो जाता है; हमें चाहिए कि हम उसे इस गंदगी को साफ करने का का मौका दें, बल्कि उस कार्य में उसकी सहायता करें और फिर उसे समाज के किसी भी सदस्‍य की तरह स्‍वीकार करें।

59 सांप्रदायिक एकता

कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं। लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीति एकता नहीं है। राजनीतिक एकता तो जोर-जबरदस्‍ती से भी लादी जा सकती है। मगर एकता के सच्‍चे मानी तो हैं वह दिल्‍ली दोस्‍ती, जो किसी के तोड़े न टूटे। इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेसजन, फिर वे किसी भी धर्म के मानने वालें हो, अपने को हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी यहूदी वगैरा सभी कौमों के नुमाइंदा समझें। हिंदुस्‍तान के करोड़ों बाशिंदों में से हर एक के साथ वे अपने पन का-आत्‍मीयता का-अनुभव करें; यानी वे उनके सुख-दु:ख में अपने को उनका साथी समझें। इस तरह की आत्‍मीयता सिद्ध करने के लिए हर एक कांग्रेसी को चाहिए कि वह अपने धर्म से भिन्‍न धर्म का पालन करने वालें लोगों के साथ निजी दोस्‍ती कामय करे, और अपने धर्म के लिए उसके मन में जैसा प्रेम हो, ठीक वैसा ही प्रेम वह दूसरे धर्म से भी करें।

हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्‍ख, पारसी आदि को अपने मतभेद हिंसा का आश्रय लेकर और लड़ाई-झगड़ा करके नहीं निपटाने चाहिए। ...हिंदू और मुसलमान मुँह से तो कहते हैं कि धर्म में जबरदस्‍ती को कोई स्‍थान नहीं है। लेकिन यदि हिंदू गाय को बचाने के लिए मुसलमान की हत्‍या करें, तो यह जबरदस्‍ती के सिवा और क्‍या है? यह तो मुसलमान को बलात् हिंदू बनाने जैसी ही बात है। और इसी तरह यदि मुसलमान जो-जबरदस्‍ती से हिंदुओं को मसजिदों के सामने बाजा बजाने से रोकने की कोशिश करते हैं, तो यह भी जबरदस्‍ती के सिवा और क्‍या है? धर्म तो इस बात में है कि आस-पास चाहे जितना शोरगुल होता रहे, फिर भी हम अपनी प्रार्थना में तल्‍लीन रहें। यदि हम एक-दूसरे को अपनी धार्मिक इच्‍छाओं का सम्‍मान करने के लिए बाध्‍य करने की बेकार कोशिश करते रहे, तो भावी पीढ़ियाँ हमें धर्म के तत्‍त्‍व से बेखबर जंगली ही समझेंगी।

यदि अपने अंतर का आदेश मानकर कोई आर्यसमाजी प्रचारक अपने धर्म का और मुसलमान प्रचारक अपने धर्म का उपदेश करता है, और उससे हिंदू-मुस्लिम-एकता खतरे में पड़ जाती है, तो कहना चाहिए कि यह एकता बिलकुल ही ऊपरी है। ऐसी प्रचार-प्रवृत्तियों से हमें विचलित क्‍यों होना चाहिएᣛ? अलबत्‍ता, ये पवृत्तियाँ सच्‍चाई से प्रेरित होनी चाहिए। यदि मलकाना जाति के लोग हिंदू धर्म में वापिस आना चाहते हैं, तो उन्‍हें इसका पूरा अधिकार है; वे जब भी आना चाहें आ सकते हैं। लेकिन इस सिलसिले में ऐसे किसी प्रचार की अनुमति नहीं दी जा सकती, जिसमें दूसरे धर्मों को गालियाँ दी जाती हो, कारण, दूसरे धर्मों की निंदा में परमत-सहिष्‍णुता का सिद्धांत भंग होता है। ऐसे प्रचार से निपटने का सबसे अच्‍छा उपाय यह है कि उसकी सार्वजनिक रीति से निंदा की जाए। हर एक आंदोलन सामाजिक प्रतिष्‍ठा का जामा पहनकर आगे आने की कोशिश करता है। यदि लोग उसके इस नकली आवरण को फाड़ दें, तो प्रतिष्‍ठा के अभाव में वह मर जाता है।

अब हिंदू-मुसलमानों के झगड़ों के दो स्‍थायी कारणों का क्‍या इलाज हो सकता है, इसकी जाँच करें।

पहले गोवध को लीजिए। गोरक्षा को मैं हिंदू धर्म का प्रधान अंग मानता हूँ। प्रधान इसलिए कि उच्‍च वर्गों और आम जनता दोनों के लिए यह समान है। फिर भी इस बारें में हम जो मुसलमानों पर ही रोष करते हैं, यह बात किसी भी तरह मेरी समझ में नही आती। अँग्रेजों के लिए रोज कितनी ही गाएँ कटती हैं। परंतु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही हिलाते होंगे। केवल जब कोई मुसलमान गाय की हत्‍या करता है, तभी हम क्रोध के मारे लाल-पीले हो जाते हैं। गाय के नाम से जितने झगड़े हुए हैं, उनमें से प्रत्‍येक में निरा पागलपन भरा शक्तिक्षय हुआ है। इसके एक भी गाय नहीं बची। उलटे, मसलमान ज्‍यादा जिद्दी बने हैं और इस कारण ज्‍यादा गाएँ कटने लगी है।

गोरक्षा का प्रारंभ तो हमी को करना है। हिंदुस्‍तान में ढोरों की जो दुर्दशा है वैसी दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्‍से में नहीं। हिंदू गाड़ीवानों को थककर चूर हुए बैलों को लोंहे की तेज आर वाली लकड़ी से निर्दयता के साथ हाँकते देखकर मैं कई बार रोया हूँ। हमारे अधभूखे रहने वाले जानवर हमारी जीती-जागती बदनामी के प्रतीक हैं। हम हिंदू गाय को बेचते हैं इसलिए गायों की गर्दन कसाई की छुरी का शिकार होती है।

ऐसी हालत में एकमात्र सच्‍चा और शोभास्‍पद उपाय यही है कि मसलमानों के दिल हम जीत लें और गाय का बचाव करना उनकी शराफत पर छोड़ दें। गोरक्षा-मंडलों को ढोंरों को खिलाने-पिलाने, उन पर होने वाली निर्दयता को रोकने, गोचर-भूमि के दिन-दिन होने वाले लोप को रोकने, पशुओं की नसल सुधारने, गरीब ग्‍वालों से उन्‍हें खरीद लेने और मौजूदा पिंजरापोलों को दूध की आदर्श स्‍वावलंबी डेरियाँ बनाने की तरफ ध्‍यान देना चाहिए। ऊपर बताई हुई बातों में से एक को भी करने में हिंदू चूकेंगे, तो वे ईश्‍वर और मनुष्‍य दोनों के सामने अपराधी ठहरेंगे। मुसलमानों के हाथ से होने वाले गोवध को वे रोक न सकें, तो इसमें उनके मत्‍थे पाप नहीं चढ़ता। लेकिन जब वे गाय को बचाने के लिए मुसलमानों के साथ झगड़ा करने लगते हैं, तब वे जरूर भारी पाप करते हैं।

मसजिदों के सामने बाजे बजने के सवाल पर-अब तो मंदिरों के भीतर होने वाली आरती का भी विरोध किया जा है-मैंने गंभीरता पूर्वक सोचा है। जिस तरह हिंदू गोवध से दु:ख होते हैं, उसी तरह मुसलमानों को मसजिदों के सामने बाजा बजने पर बुरा लगता है। लेकिन जिस तरह हिंदू मुसलमानों को गोवध न करने के लिए बाध्‍य नहीं कर सकते, उसी तरह मुसलमान भी हिंदुओं का डरा-धमकाकर बाज या आरती बंद करने के लिए बाध्‍य नहीं कर सकते। उन्‍हें हिंदुओं की सदिच्‍छा का विश्‍वास करना चाहिए। हिंदू के नाते मैं हिंदुओं को यह सलाह जरूर दूँगा कि वे सौदेबाजी की भावना रखे बिना अपने मुसलमान पड़ोसियों के भावों को समझें और जहाँ संभव हो वहाँ उनका खयाल रखें। मैंने सुना है। कि कई जगह हिंदू लोग जान-बुझकर और मुसलमानों का जी दुखाने के इरादे से ही आरती ठीक उस समय करते हैं जब कि मुसलमानों की नमाज शुरू होती है। यह एक हृदय हीन और शत्रुतापूर्ण कार्य हे। मित्रता में मित्र के भावों का पूरा-पूरा खयाल रखा ही जाना चाहिए। इसमें तो कुछ सोच-विचार की भी बात नहीं है। लेकिन मुसलमानों को हिंदुओं से डरा-धमकाकर बाजा बंद करवाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। धमकियों अथवा वास्‍तविक हिंसा के आगे झुक जाना अपने आत्‍म-सम्‍मान और धार्मिक विश्‍वासों का हनन है। लेकिन जो आदमी मौके हमेशा यथासंभव कम करने की और संभव हो तो टालने की भी पूरी कोशिश करेगा।

मुझे इस बात का पूरा निश्‍चय है कि यदि नेता न लड़ना चाहें, ता आम जनता को लड़ना पसंद न‍हीं है। इसलिए यदि नेता लोग इस बात पर राजी हो जाएँ कि दूसरे सभ्‍य देशों की तरह हमेशा देश में भी आपसी लड़ाई-झगड़ों का सार्वजनिक जीवन से पूरा उच्‍छेद कर दिया जाना चाहिए और वे जंगलीपन और अधार्मिकता के चिह्र माने जाने चाहिए, तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी।

जब ब्रिटिश शासन नहीं था और अँग्रेज लोग यहाँ दिखाई नहीं पड़ते थे, तब क्‍या हिंदू, मुसलमान और सिक्‍ख हमेशा एक-दूसरे से लड़ते ही रहते थे? हिंदू इतिहासकारों और मुसलमान इतिहासकारों ने उदाहरण देकर य‍ह सिद्ध किया है कि उस समय में हम बहुत हद तक हिल-मिलकर और शांतिपूर्वक ही रहते थे। और गाँवों में तो हिंदू-मुसलमान आज भी नहीं लड़ते। उन दिनों वे बिलकुल ही नहीं लड़ते थे। ... यह लड़ाई-झगड़ा पुराना नहीं है। ... मैं तो हिम्‍मत के साथ यह कहता हूँ कि वह ब्रिटिश शासकों के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है; और जब ग्रेट ब्रिटेन और भारत के बीच आज जो दुर्भाग्‍यपूर्ण, कृत्रिम और अस्‍वाभाविक संबंध है वह बदलकर सही और स्‍वाभाविक बन जाएगा, जब उसका रूप एक ऐसी स्‍वेच्‍छापूर्ण साझेदारी का हो जाएगा, जो किसी भी समय दोनों में से किसी भी पक्ष की इच्‍छा पर तोड़ी जा सके, उस समय आप देखेंगे कि हिंदू, मुसलमान, सिक्‍ख, ईसाई, अछूत, एंग्‍लो-इंडियन और यूरोपियन सब हिल-मिलकर एक हो गए हैं।

मुझे इस बात में रंचमात्र भी संदेह नहीं है कि सांप्रदायिक मतभेद का कुहासा आजादी के सूर्य का उदय होते ही दूर हो जाएगा।